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________________ विफलता और अस्थिरता का बोध भीतर ही भीतर कुरेदता रहता है । हर सुख में कुछ चूकता-सा लगता है । वह अचूक और अबाध नहीं लगता । इस संसार के बड़े से बड़े प्रेम-प्यार और सुख में भी उपाधि और आकुलता का काटौं सदा खटकता रहता है । • • • - 'कुछ ही समय में आनन्द गृहपति की यह बेचैनी इतनी बढ़ गई, कि प्रतिपल के जीने को वह टोकने लगा, उसे सन्देह की दृष्टि से देखने लगा। चन्द्रमा की अटूट रोहिणी जैसी प्राण प्रिया शिवनन्दा भी उसे अपनी न लगने लगी। वह भी बिछुड़ कर, पराई पराधीन सी प्रतीत होने लगी। अपने विशाल व्यवसाय और वैभव में से उसका चित्त उचट गया । अभिन्न प्रिया पत्नी, वह साँसों में गुंथी संगिनी भी उसकी वेदना को न थाह सकी । गृहपति चाहे जब, आधी रात, उसके बाहुपाश में से छटक कर, चुपचाप बाहर निकल पड़ता। वीरानों में भटकता और कब घर लौटता, निश्चित नहीं रह गया था । . . . शिवा ने अनेक व्रत-उपवास किये, मनौतियाँ मानीं, अनेक देव पूजे, मगर श्रेष्ठि की मनोवेदना रात दिन बढ़ती ही चली गई। ___ आनन्द गृहपति निरन्तर संवेग से उद्वेलित रहने लगा। उसमें एक अनिवार्य पुकार चीखें मार रही थी : क्या कहीं कोई ऐसा सुख नहीं, जो स्थायी हो, जो निराकुल हो ? जिसमें भंगुरता, मृत्यु और वियोग की दरार न हो ? जो समरस, शांत और अगाध हो ? पापित्य जिनधर्मी होने से श्रावक के षट् आवश्यक तो वह पालता ही था। विशेष पूजा, स्वाध्याय, दान, व्रत आदि भी धार्मिक पर्यों में करता ही रहता था। धर्म पालन करते तो उसको सारी उम्र बीती थी । संसार की निःसारता और मोक्ष के स्थायी सुख का शास्त्र भी उसने कम नहीं सुना था। लेकिन आज इस चरम वेदना की घड़ी में, उसे साक्षात् हो रहा था, कि वह सारा धर्म-प्रवचन तोता-रटन्त खोखले शब्दों के अतिरिक्त कुछ नहीं था। वह सारा धर्म-पालन एक निर्जीव, निःसार क्रिया-काण्ड के सिवाय और कुछ नहीं था। वह परिणामहीन था, और उसके संत्रास को घटाने के बजाय वह बढ़ाता ही था। संसार की असारता और दुःखों के भयानक वर्णन, नरकों की यातनाओं के वे भीषण चित्र, उसकी चित्त-वेदना को सौ गुना करके छोड़ देते थे । उसकी चेतना को खतरे में डाल देते थे । सो वह जड़ धर्म भी उसे शत्रुवत् लगने लगा था। इसी बीच सर्वज्ञ अर्हन्त महावीर के तारक और शान्तिदायक व्यक्तित्व और प्रवचन की चर्चा सब ओर व्याप्त थी । अर्से से आनन्द गहपति का जी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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