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'प्रभु, सबल होना अच्छा, या दुर्बल होना अच्छा ?'
'न सबल न दुर्बल, स्वबल होना अच्छा है। क्योंकि स्वबल न किसी से पीड़ित होता है, न किसी को पीड़ित करता है। स्व-वीर्य में रहना अच्छा है, क्यों कि वह न घात्य होता है, न घातक होता है।'
'हे स्वामिन्, उद्यम अच्छा कि आलस्य अच्छा ?'
'प्रमादी भी उद्यमी हो सकता है, उद्यमी भी प्रमादी हो सकता है। क्रिया बाहर ही नहीं, भीतर भी होती है। वही निर्णायक है। अप्रमत्त रहना अच्छा है। उसमें उद्यम और आराम, अनायास एक साथ होता है।'
'अप्रमत्त कैसे होऊँ, भन्ते ?'
'प्रति क्षण, अपने और सर्व के प्रति संचेतन रह, जयन्ती। आप ही अप्रमत्त हो जायेगी। • • लेकिन प्रमत्त भी नहीं, अप्रमत्त भी नहीं, ऐसी है मौलिक स्थिति, देवानुप्रिये।'
'यह तो विरोधाभास है, भगवन्, समझ से बाहर है।'
'यह उदय और अस्त की संयुक्त सन्ध्या है, देवी। इसे समझा नहीं जा सकता। केवल जिया जा सकता है। तू ऐसा जियेगी, जयन्ती !'
'हे परम कृपानाथ, वह सब तुम्हारे हाथ है। मैं अनुगत हुई, मुझे श्रीचरणों में प्रजित करें, प्रभु।'
'मा पडिबन्ध करा। कोई प्रतिबन्ध नहीं। तुझे जिसमें सुख लगे, वही कर, जयन्ती। तू स्वतंत्र है। तू ही निर्णायक है।'
और प्रभु की परम श्राविका, कौशाम्बीपति शतानीक की बहन, वत्सराज उदयन की बुआ जयन्ती देवी, भगवती चन्दन बाला के हाथों जिनेश्वरी दीक्षा अंगीकार कर प्रभु की भिक्षुणी हो गई।
जय-ध्वनि के साथ उन पर पुष्प-वर्षा हुई। और वे जहाँ खड़ी थीं, वहीं कायोत्सर्ग में निश्चल हो गईं। उन्हें लगा कि वे हलकी हो कर ऊपर, ऊपर, और ऊपर उठती जा रही हैं।
इस बीच आसपास के अनेक सन्निवेशों में, प्रजाओं को प्रतिबोध देते हुए श्री भगवान फिर कौशाम्बी आये। जम्बू वन चैत्य में समवसरित हुए।
दिन का अन्तिम पहर नम रहा था। कि हठात् सारे आकाश में एक विभ्राट उद्योत हुआ। विराट् प्रभा-पुंजों के समान दो शाश्वत विमान, श्रीमण्डप
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