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से जीव भारिल होता है । मिथ्या-दोषारोपण से, चुग़ली खाने से, रति और अरति से, प्रमाद से, कपटाचार से, ग़लत दर्शन से, ग़लत ज्ञान से जीव भारिल होता
_ 'इन विभावात्मक कम्पनों से उबर कर, जो जीव अपने स्व-भाव में स्थिर नहीं होता, वह जड़ माटी के हाथों खेलता, माटी में ही मिलता रहता है।'
'जो हलकापन आज प्रातः अनुभव किया, वह मुझ में स्थिर कैसे हो प्रभु ?'
‘अपने आत्म में स्थिर रहो। अपने स्वभाव में अचल रहो। अन्य के प्रति कोई प्रतिक्रिया न करो। उससे टकराओ नहीं। उसे अपने में पूर्ण अवकाश दो। सह-अस्तित्व में समभाव और सहानुभूति से जियो। स्वयम् जैसे निर्बाध जीना चाहती हो, वैसे ही औरों को भी निर्बाध जीने दो। तो कषाय न जागेंगे। फलतः चेतना में कर्म का आश्रवण न होगा। चिन्मय पर मृण्मय का आलेपन न होगा। तो तुम सदा हलकी रहोगी। अपने ही आनन्द में तैरती रहोगी। देखो न जयन्ती, अर्हत्, इतने हलके हो गये हैं, कि अनायास अधर में ही विचर रहे हैं। पृथ्वी उन्हें खींच नहीं पाती, बाँध नहीं पाती। फिर भी उनसे बड़ा पृथ्वी का भोक्ता और कौन हो सकता है ?' ____ प्रतिबुद्ध हुई, भगवन् । . . मेरा यह शरीर कैसी एक कपूर की-सी सुगन्ध में ऊपर से ऊपर तैरता जा रहा है !'
'तथास्तु, देवानुप्रिये।' 'भन्ते क्षमाश्रमण, मुक्ति स्वभाव है, कि परिणाम है ?'
'वह स्वभाव है, जयन्ती, परिणाम नहीं। आदि, मध्य, अन्त में आत्मा सदा मुवत है, अभी और यहाँ । सो मुक्त होना नहीं है, मुक्त रहना है। वही मौलिक स्थिति है, आत्मा की। जो यों जीता है, वही सम्पूर्ण जीता है। ऐसा मैं जीता हूँ, और कहता हूँ।'
'जीवन और मुक्ति में समरस जीने की कला कमल की तरह भीतर स्वयमेव ही विकसित हो रही है, प्रभु !'
'तू उत्तम भव्यात्मा है, जयन्ती।'
'अनुगृहवती हुई, देवाधिदेव प्रभु। पूछती हूँ, सोना अच्छा या जागना अच्छा ?'
'कोई सोते हुए भी जागता है। कोई जागते हुए भी सोता है। इसी से अपने में ही सोना और अपने में ही जागना अच्छा है। अन्य सब भ्रान्ति
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