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प्रातःकाल की धर्म - पर्षदा में जयन्ती देवी प्रभु के सम्मुख न आ सकी थीं । प्रभु के श्रीमुख का दर्शन करते ही, उन्होंने एक अननुभूत हलकापन अनुभव किया था । एक विचित्र लीनता में वे तैरती रही थीं। इस अनुभव द्वारा वे प्रभु में इतनी तन्मय हो गयी थीं, कि अलग से कोई संलाप या प्रश्न संभव ही न हुआ । आमने-सामने हो कर भी वे मानो प्रभु में ही रम्माण हो रही थीं ।
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दोपहर बाद जयन्ती देवी कुछ निर्गत हो सकीं। और जिस अनुभव से गुज़री थीं, उसमें स्थिर होने की खोज में, उनके मन में कुछ प्रश्न उठते चले गये। सो अपराह्न की धर्म-सभा में वे नत मस्तक प्रभु के सम्मुख आईं। प्रश्न उनके ओठों तक आये, उससे पहले ही उन्हें सुनाई पड़ा :
'देवानुप्रिये, आत्मा स्वभाव से ही हलका होता है, भारी नहीं होता । तुम स्वभाव से ही हलकी हुईं । स्वानुभव प्रमाण है ।'
'तो फिर प्रभु, जीव भारी क्यों होता है ? जिस हलकेपन को मैंने सवेरे अनुभव किया, वह तिरोहित हो गया। मैं फिर भारी हो गयी । क्या वह हलकापन स्थिर नहीं हो सकता ? '
'तूम्बा तो पानी पर तैरता ही है । वह उसका स्वभाव है । लेकिन उस पर माटी की आठ पतें चढ़ा कर पानी में डालो, तो वह डूब जायेगा । पर्तें उतर जायें, तो वह ऊपर तैर आयेगा । हलकापन और तैरना उसका स्वभाव है। माटी उसका विभाव है, वह ऊपर से आलेपित वस्तु है । की पर्तें काट दो, तो तुम सदा को हलकी हो जाओ, कल्याणी ! '
उस माटी
'तो प्रभु, क्या जीव पर भी माटी की पर्तें चढ़ती हैं ? '
'चढ़ती हैं, देवी ।'
'सो कैसे, प्रभु
'जीवों के अहम् टकराते हैं। उससे उनमें राग-द्वेषात्मक प्रतिक्रिया होती है। उससे जीव की चेतना क्षुब्ध होती है । उसमें भारी हलन चलन और कम्पन होता है । यही कषाय है । इस कषाय से, आकाश में सर्वत्र व्याप्त कर्म के जड़ पुद्गल परमाणु आकृष्ट हो कर आत्मा पर छा जाते हैं । और पर्तदर-पर्त माटी के पाश आत्मा पर बुनते जाते हैं, उसे बाँधते चले जाते हैं । उसी जीव भारी होता है, जयन्ती ।'
?'
'वे कौन कषायें हैं, भन्ते, जिनसे जीव पर माटी के ये पाश गाढ़ से गाढ़तर होते चले जाते हैं ? और जिनसे जीव भारी होता चला जाता है ? '
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'हे जयन्ती, हिंसा से, असत्य से, चोरी से, मैथुन से, परिग्रह से जीव भारिल होता है । क्रोध से, मान से माया से, लोभ से, राग से, द्वेष से, कलह
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