SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 320
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१० 'तुम्हें जिसमें सुख लगे वही करो, देवानुप्रिये । तुमने अपना मार्ग स्वयम् ही खोला है। उसी पर बेहिचक चली चलो।' 'इस क्षण के बाद मेरा मार्ग स्वयम् महावीर हैं। लेकिन जानें प्रभु , मैं अवन्तीनाथ की वाग्दत्ता हूँ। सूर्यवंश की आपूतिवचन क्षत्राणी हूँ। प्रद्योतराज को दिया वचन तोडूंगी नहीं। उनसे अनुमति चाहती हूँ, कि इस शरीर को अर्हत् का नैवेद्य हो जाने दें।' भगवान निश्चल वीतराग स्मित से तत्त्व के परिणमन को देखते रहे। · · ·चण्ड प्रद्योत उस समय प्रभु की पर्षदा में उपस्थित था। महादेवी मृगावती के उस आत्मोत्सर्ग को देख, वह पश्चाताप और प्रायश्चित्त से पसीज उठा। तुरन्त अपने स्थान से उठ आया, और महारानी मृगावती के चरणों में भूसात् नम्रीभूत हो गया। फिर भर आते कण्ठ से बोला : 'जगदम्बा को अनुमति देने वाला मैं कौन होता हूँ, देवी ? सती पर आसक्त होने का अपराध करके भी, उसकी प्रीति का भाजन हो गया। मैं कृतकृत्य हुआ। आदेश दें देवी, आपका क्या प्रिय करूँ ?' ____ आदेश तो यहाँ केवल प्रभु दे सकते हैं। जगत ने चण्ड प्रद्योत के चण्डत्व को ही जाना। मैंने उनकी कोमलता को भी देखा और जाना। अर्हत् के अनुगृह से मनुष्य के भीतर के मनुष्य के सौन्दर्य को देखा, मैं कृतार्थ हुई।' __और तभी, उज्जयिनी की पट्टमहिषी शिवादेवी के हृदय में, इस जगत्प्रपंच की निःसारता सामने देख कर, अनिर्वार वैराग्य जाग उठा। प्रद्योतराज की अनेक अन्य रानियों सहित, वे भगवान के चरणों में प्रस्तुत हुईं। उन सब ने निवेदन किया कि वे भागवती दीक्षा ग्रहण कर प्रभु को सतियाँ हो जाना चाहती हैं। ____ मा पडिबन्धं करेह । कोई प्रतिबन्ध नहीं। जिसमें तुम्हें अपना सुख लगे, वही करो, क्षत्राणियो।' और प्रभु की दो महारानी मौसियों-मृगावती और शिवादेवी के संग, चण्डप्रद्योत का एक पूरा अन्तःपुर प्रभु की चरण-रज हो रहा । भगवती चन्दन बाला ने देवी मृगावती को सम्मुख रख कर, पाँच सौ रानियों को तत्काल भगवती दीक्षा प्रदान की। जयकारे गूंज उठी : 'परम सती-वल्लभ भगवान महावीर जयवन्त हों!' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy