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________________ _ 'फिर भी लोकालोक के नाथ चुप ही रहे । मेरे सीमन्त पर बलात्कारी की तलवार तुलती रही। मेरा सिन्दूर उजड़ गया। तीर्थंकरों की चिरकालीन क्रीड़ाभूमि कौशाम्बी विनाश की कगार पर झूलती रही। चराचर के त्राता, यह सब देखते रहे, और चुप ही रहे ।' ‘महासत्ता सक्रिय रही, देवी । मैं अनिमेष उसे देखता रहा, और वह अमोघ प्रतिकार करती रही। · · · तुमने चण्ड प्रद्योत का हृदय जीत कर, उसकी सत्ता को पदानत कर दिया । मगधेश्वर की कन्या ब्याह कर भी, उसके शूरातन को चने चबवा देने वाला चण्ड प्रद्योत, तुम्हारा किंकर हो कर, तुम्हारे दुर्गप्राचीरों की बुनियादें डालने लगा। सारी अवन्ती की सम्पत्ति और वैभव उसने तुम्हारे कोषागारों में भरवा दिया। उज्जयिनी ने कौशाम्बी तक फैल कर तुम्हारे चरण पकड़ लिये। · · · यह किसका प्रताप है, कल्याणी ? मैं कोई नहीं, तुम्हारी अपनी ही महासत्ता !' परम आत्मीय भगवान का सम्बल पा कर देवी मृगावती अपनी दबी व्यथा को उँडेलती चली गईं : 'एक अनाथ किशोर की विधवा माँ ने संकट की घड़ी में, अपने त्राण का लाचार उपाय किया । तुम्हारे होते उसने कपट-कूट किया। अपने शब्द से उसने अपने सतीत्व की मर्यादा लोप दी। मैंने अवन्तिपति को आत्मार्पण करने का वादा किया । तुम्हारे होते मैं अध:पतित हुई !' और महारानी फूट कर रो आई। _ 'मेरे होते नहीं, अपने होते, तुम पतित न हुईं, उन्नत हुईं । तुमने अपनी आत्मशक्ति के निर्णय से दिखावटी सतीत्व के पाश को तोड़ कर, अपने परम सतीत्व की रक्षा की । अपने युवराज और राज्य की रक्षा की ।तुमने प्रद्योत के प्रति मुक्त आत्मदान की मुद्रा अपना कर, उसके चण्डत्व' को गला दिया। महासत्ता स्वयम् तुम्हारे सत् के तेज से पसीज कर, तुम्हारे भीतर सक्रिय हुई । तुमने आत्मत्राण किया। तुम महावीर को प्रियतर हुईं । तुम्हारी निरालम्बता और अनाथत्व की उस घड़ी में, तुम्हें महावीर ने स्वयम्नाथ होते देखा। वह एक महान दृश्य था। आर्यावर्त की सतियों में तुम्हारा सतीत्व अनोखा और अतुल्य है, देवी !' क्षण भर स्तब्धता छायी रही । उसके बाद हठात् जित हो कर बोल उठी महारानी मृगावती : 'मैं प्रतिबुद्ध हुई। मैं समाधीत हुई, भगवन् । अब मैं निवृत्त हुई, नाथ । मैं कृतकाम हुई । मुझे जिनेश्वरी दीक्षा प्रदान कर, अपनी अनुगता बना लें, प्रभु ।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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