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नाथ। राज्य, रमणी, भोग में अब विश्रान्ति नहीं। मुझे जिनेश्वरी प्रव्रज्या प्रदान करें, भगवन् !'
भगवान ने कोई उत्तर न दिया। उदयन मन ही मन आँसू भरी आँखों से प्रभु की मनुहार कर रहा है। प्रभु का मौन किसी तरह टूटता नहीं। उदयन को उत्तर नहीं मिल रहा। वह कहाँ जाये, क्या करे ? कहाँ लौटे ?. . .
हठात् उसे सुनाई पड़ा : ___ 'लौट जा अपने विलास-राज्य में, उदयन। वासवी की आँखों की मदिरा अभी चुकी नहीं। चुकेगी भी नहीं। तुम्हारे युगल-संगीत की धारा अनाहत बहेगी। और तेरी मोहरात्रि में ही एक दिन अचानक मुक्ति का महासुख कमल खिल उठेगा। अमूर्त को मूर्त, और मूर्त को अमूर्त करने वाली तेरी श्रुति-कला ही स्वयम् तुझे तेरे चरम गन्तव्य पर पहुँचा देगी।'
'लेकिन यह राजसत्ता मेरे वश की नहीं, प्रभु । क्षत्रिय का अध:पतन हो रहा है। अपनी पुन्सत्वहीनता पर लज्जित हूँ।' ___'तेरा राज्य तलवार का नहीं, अहंकार का नहीं, कूटचक्रों का नहीं, हिंसा का नहीं। वह कला और सौन्दर्य का रूपान्तरकारी राज्य है। आर्यावर्त के हिंसक सत्ता-संघर्षों की चूड़ा पर बैठा तू वासवी के संग वीणा बजा रहा है। तुझ में एक युगान्तर जारी है। तू अतिक्रान्तिकारी है। तेरी संगीत-लहरी पर पशुत्व का लोहा गल रहा है। जन-जन तेरी कोमल क्रीड़ा से रंजित और उद्बुद्ध है। तू अनजाने ही असंख्य आत्माओं में मार्दव, आर्जव और संवेग जगा रहा है । . . .
‘जा उदयन, पूछ नहीं, जो अपने जीवन को, निर्द्वद्व! और राज्य-क्रान्तियाँ अपने आप होंगी। अपने युद्धों में भी तू कलाकार ही रहेगा। और शताब्दियाँ तेरे कला-विलास की कहानियाँ कहती रहेंगी। उससे अनन्त जीवन की प्रेरणा पाती रहेंगी। तू जयवन्त हो, देवानुप्रिय !'
उदयन की आँखों से धारासार आँसू बह रहे थे। वह उद्बुद्ध हो कर बोल उठा :
'प्रतिबुद्ध हुआ भगवन्, आत्मकाम हुआ, भगवन् !'
और उदयन भगवान की तीन प्रदक्षिणा दे, भूसात् प्रणिपात करके, मनुष्यों के प्रकोष्ठ में बैठ गया।
'वत्सदेश की राजमाता, मृगादेवी ! अर्हत् तुम्हारे संकटों से अनजान नहीं।'
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