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'सुरा, सुन्दरी और संगीत से बाहर कुछ भी पाने की इच्छा नहीं, प्रभु ! शेष तो आप जानें ।' ___ 'तथास्तु, उदयन । जहाँ तेरा चित्त लगा है, वहीं से तुझे तेरा चैतन्य लब्ध हो जायेगा। वहीं तू एकाग्र आप है । इसी से तू सौन्दर्य और संगीत का योगी है। योग से बाहर तो कुछ भी नहीं। योग सर्वसमावेशी है। उसमें हर विषयानन्द, आत्मानन्द तक पहुँच कर ही विरम सकता है । ऐसा मैं तुझ में देखता हूँ, जानता हूँ और कहता हूँ।'
'रमणी के आलिंगन का समुद्र अगाध है, प्रभु । वहीं समाधि लग जाती है, तो तट पर कैसे कौन पहुँचे ?' ___'समाधि में मझधार और तट एकाकार हो जाते हैं, उदयन । तू तट पर भी है, और मझधार में भी है।'
'लेकिन कितनी अनिश्चित है यह मोहरात्रि, भगवन् ! काल के प्रवाह में एक दिन ..'
'एक दिन नहीं, अभी और यहाँ तू अपने निजानन्द के रस में लीन है । यह धारा काल-प्रवाह के ऊपर है । इसी में तैरता तू वासवी के साथ अपनी वीणा बजा रहा है। . .' ___ 'लेकिन एक दिन वासवी और वीणा दोनों ही लप्त हो जायेंगे, जाने कहाँ ! मर्त्य पृथ्वी पर यही तो मनुष्य की नियति है ।' ___ 'नहीं, तू ही वासवी, तू ही वीणा, तू ही समुद्र हो जायगा। तू पर नहीं रहेगा, पराश्रित न रहेगा। पर में न रमेगा । आत्म में ही रमेगा।'
_ 'मुझ जैसा विलासी, दिलास के बीच ही तर सकता है, ऐसा आज तक त्रिलोकी में सुना नहीं गया, प्रभु !'
_ 'सुनने की क्या बात, देख अपने आपको । अभी और यहाँ जो विलासमग्न है, वह कौन है ? कौन है यह भोक्ता ? जो भोगते हुए अपने को देख और जान रहा है । जो भोग-क्षण बोतने पर रमण के विरमण का भी साक्षी है। हर भोग के बीतने पर भी जो स्वयम् बोतता नहीं, रीतता नहीं । जिसकी वासना अनन्त है। जो अनाहत वासना-पुरुष है । जो स्वयम् अपनो वासना है, स्वयम् ही उसकी भुक्ति और तृप्ति है, वही तू है। वह, जो युगल नहीं, एकल यहाँ आया है । वासवी सामने नहीं है, फिर भी जो इतना ऊर्जस्वल, आनन्दित, तरंगित है। वही तू है।'
_ 'अपूर्व है अनुभूति का यह क्षण, नाथ । इस अन्तर-मुहुर्त में अपने आत्म में अचल हूँ. भगवन् । ईहातीत क्षण में विश्रब्ध हैं। अपने जैसा बना ले
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