SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०६ 'सुनो उदयन, वासवदत्ता भी मानवी नहीं, तुम भी मानुष नहीं। दोनों ही गन्धर्व हो । लेकिन मानव तन में प्रकटे हो, संगीत द्वारा मनुष्य में अमृत का सृजन करने के लिये । तुम नहीं जानते, तुम कौन हो !' 'आज तो ऐसा ही लग रहा है, प्रभु । किन्तु आश्चर्य है कि सुरा और सुन्दरी की मोहरात्रि में डूबा उदयन वीतराग जिनेश्वर का प्रिय हो सका ?' 'जिनेश्वर मनुष्य के बाह्य से उसके भीतर का निर्णय नहीं करते। वे चित्त पर नहीं अटकते, चिति को देखते हैं । उनकी दृष्टि अन्तश्चेतना की लौ पर होती है । उदयन की चेतना और वासवी के चित्त को चिरकाल से देख रहा हूँ, देवानुप्रिय ! ' 'विचित्र है, भन्ते स्वामी ! ' • विन्ध्यारण्य में हस्तियों और मृगों को अपने वीणा वादन से मोहित करते किशोर उदयन को देख रहा हूँ । वहाँ उसने किसी भील द्वारा बलात् पकड़े हुए एक महासर्प को देखा। उसने करुणा से भर कर उस शबर से कहाइस सर्प को छोड़ दो । सँपेरा राजी न हुआ, वह उसकी रोज़ी थी। कई दिनों के श्रम के बाद उसने उस सर्प को पकड़ा था । • और तब उदयन ने अपना वह अलभ्य कंकण उसे दे दिया, जो उसकी माँ मृगावती ने अपने हाथ निकाल कर उसे पहना दिया था, और जिस पर उसके पिता शतानीक का हस्ताक्षर अंकित था। कंकण पा कर सँपेरे ने सर्प को छोड़ दिया । ' और सुनो उदयन, हठात् वह सर्प मनुष्य रूप में तुम्हारे सामने खड़ा हो गया और तुम्हें प्रणाम करने लगा। फिर उसने तुम्हें तुम्हारी कुंजर - विमोहिनी वीणा प्रदान को, जो गान्धर्वी है, अश्रुतपूर्व स्वरों की वाहक है । और उसने तुम्हें कभी न कुम्हलानेवाली माला अर्पित की। और कभी न सूखने वाली पान की लता भी भेंट की । कि वह स्वयम् वासुकी नाग है ! उसकी प्राण-रक्षा की प्रीत हुआ । तिलक युक्ति के साथ फिर कर बद्ध बोला, तुमने | वह तुम पर 'और तुम अनजाने ही गन्धर्वो और विद्याधरों के राजा हो गये । आज अपने संगीत से तुम जड़-जंगम पर राज्य करते हो। तुम्हारी चेतना की उस अनुकम्पा को महावीर ने देखा है ।' भगवान क्षणैक चुप हो रहे । फिर हठात् मुखरित हुए : 'बोल, क्या चाहता है, उदयन ?' उदयन को लगा कि वह कोई और ही हो गया है, और वह अपने को पहचानने-सा लगा । एक विचित्र द्वंद्व और असमंजस में से बोला : Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy