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बड़ी भोर ही सारी कौशाम्बी में उदन्त फैल गया, कि ज्ञातृपुत्र भगवान महावीर यमुना तटवर्ती 'चन्द्रावतरण' चैत्य में समवसरित हैं । • राजमहलों से ले कर, नगर के परकोटों तक, उत्सव को धूम मच गयी। उदयन के सिंहद्वारों पर 'हस्तिराज' नक्काड़े, शहनाइयाँ और तुरहियाँ गूंजने लगीं ।
और सम्पूर्ण वैभव और तामझाम के साथ वत्सराज उदयन, राजमाता मृगावती तथा अपनी बुआ जयन्ती देवी के साथ श्रीभगवान के वन्दन को गया ।
उदयन समवसरण को विभा और विभूति को देख कर दिङ्मूढ़ हो रहा । यह एक शृंगचारी संन्यासी की लक्ष्मी है ! और स्त्री का जो लावण्य उसने यहाँ देखा, तो उसे अपनी हजारों विलास- रातें फीकी जान पड़ीं । • 'महावीर, तुम मेरे मौसेरे भाई, इतने बड़े और ऐसे विराट् हो, यह तो सोचा भी नहीं था । तुम्हारी तपस्या की विकटता पर मैंने कम अट्टहास न किया । लेकिन सुना था, तुम मुझे दूर से ही प्यार करते हो । काश, तुमसे पहले मिलना हो सकता, वर्द्धमान
!
- लेकिन अब तो तुम भगवान हो गये। और मैं तुम्हारे एक कटाक्षपात का प्रार्थी हूँ। मैं वत्सराज उदयन, तुम्हारा मौसेरा भाई । उदयन, जिसकी चितवन की धार पर साम्राज्य और सुन्दरी एक साथ खेलते हैं । तुम्हारी गन्धकुटी के पादप्रान्त में खड़े, तुम्हें निहारते मुझे इतनी देर हो गयी । और तुमने आँख उठा कर मेरी ओर देखा तक नहीं ?
एकाएक श्री भगवान वाक्मान हुए :
'सुरा, सुन्दरी और संगीत के योगो उदयन, अर्हत् प्रीत हुए, तुम आये । महावीर की याद में तुम सदा रहे! '
वत्सपति उदयन साष्टांग प्रणिपात में नत हो गया । महादेवी मृगावती और जयन्ती देवी ने भी अनुसरण किया । उदयन से बोला न गया । वह तन्निष्ठ अपलक देखता ही रह गया प्रभु के उस अक्षय कोमल चेहरे को ।
'एकल ही आये, उदयन ? वासवी को साथ न लाये ? वासवदत्ता की घोषा के साथ तुम्हारी वासुकी वीणा का युगल-वादन सुनना चाहता हूँ ! '
. जैसे,
भगवन्,
'वासवी आज कहीं न दीखी. स्वामी । वह अभागी, प्रभु तक न आ सकी । और प्रभु की वाणी के सम्मुख कौन वीणा बज सकती है ! और अर्हत् के संग होते मैं एकल कहाँ ? वासवी मेरी ही वासना है, और इस पल वह मुझी में लीन हो रही है ।
इस क्षण लग रहा है, जैसे
!
विचित्र है यह अनुभूति, नाथ
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