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________________ अनन्त आयामी कैवल्य-कला आकाश में सुवर्ण मल्लिका जैसी सन्ध्या खिलो है। और यमुना के बीच स्थित अपने 'सुयामुन प्रासाद' के तुंग वायातन पर खड़ा है वत्सराज उदयन । यह सोने की साँझ उसे आज अपूर्व और आलौकिक लगी। ऐसी सन्ध्या उसने पहले कभी न देखी थी। हठात् उसकी निगाह, नीचे फैले विशाल उद्यान पर गई। यह क्या हुआ · · · कि उद्यान में खड़ी शालभंजिकाएँ लास्य नृत्य करती हुई, अँगड़ाइयाँ ले रही हैं। राजद्वार के दोनों ओर खड़ी धनुर्धरों की प्रत्यालीढ़ मूर्तियाँ डोल रही हैं। ___· · · चौंक कर अपने कक्ष में देखा : साथ-साथ पड़ी वासवदत्ता की घोषा और उदयन की कुंजर-विमोहिनी वीणायें आपोआप बज रही हैं। कक्ष-द्वार पर सुरावाहिनियों की प्रतिमाओं के वक्ष सुरा-कुम्भों की तरह उफन आये हैं। उसने वासवदत्ता को पुकारा। वह कहीं नहीं थी। उदयन ने अपनी विलास-शैया को थर-थराते देखा। · · ·ओह, वह यहाँ कितना अकेला है ! वह जगज्जयी योद्धा आदृत भय से सिहर आया। · · ·और उसी पिछली रात महारानी मृगावतो को सपना आया, कि वे अपने महल में नहीं हैं, अपने कक्ष में नहीं हैं, अपनी शैया में नहीं हैं। उस सूने में भयभीत हो, वे अपने को खोजने लगीं। और सहसा ही उन्होंने देखा, कि वे इस जगत् से बाहर-कहीं उजले हंसों के वन में अकेली खड़ी हैं। और उनके माथे के आसपास एक आभावलय है। . . “महारानी जाग उठीं। फिर सोना शक्य न रहा। एक नीरव शान्त सुख में लीन हो कर, वे ध्यान में बैठ गई। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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