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________________ ३०३ 1 की तरह देखती चली गईं। जीती चली गईं। उन्हें याद आ रहा था, कि इसी बीच वर्द्धमान महाभिनिष्क्रमण कर गये थे । फिर उनकी बारह वर्ष व्यापी तपस्या के वे लोमहर्षी वृत्तान्त | फिर कौशाम्बी में उनके लंबे उपवासों और अवधूत भ्रमण का वह हृदय विदारक दृश्य । चन्दना का बन्धन - मोचन । दासत्व के उत्पाटन द्वारा परित्राता की वह ख़ामोश क्रान्ति । और फिर ऋजुबालिका के तट पर उनकी चरम समाधि के वे हृदय हिला देने वाले उदन्त । • और अब महारानी मृगावती का वह भावी जगत्पति बेटा, त्रिलोकीनाथ हो कर आर्यावर्त के नाड़ी-चक्रों में आरपार भ्रमण कर रहा है । महारानी मृगावती ने अपने प्रासाद की सर्वोच्च अटारी पर चढ़ कर दूर दिशान्तों पर प्रतीक्षा की आँखें फैला दीं । 'और हठात् उन्हें दीखा, कि सामने बह रही यमुना के विस्तृत पाट पर, इस आधी रात की चाँदनी में, यह कौन मातरिश्वन् चुपचाप डग भरता चल रहा है ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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