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और योगारूढ़ ऋषभ को सर से पैर तक एक प्रकम्पन हिला गया। निर्माण की यह वैश्वानरी इच्छा एक विभ्राट उल्कापात की तरह नीरव टंकार कर उठी। · : और वहाँ अचानक एक 'शिवपुरी' अवतीर्ण हो गयी। रूपी शब्दों में उस महाभाव सौन्दर्य के निरंजन अवयवों का वर्णन कैसे हो? यहाँ गुग ही रूप हो गया है : रूप ही गुण हो गया है । यहाँ मानो देह को आत्मा हो जाना पड़ा है । यहाँ मानो आत्मा को देह हो जाना पड़ा है।
युग-युग के योगदर्शी महाकवियों ने इस 'शिवपुरी' को सौ नामों से पुकारा है । और योगी ऋषभ के सहस्रार में वे नाम जैसे कमलों की तरह फूट रहे हैं :
त्रिलोक सार, श्रीपुर, लोक कांति, लोकालोक-प्रकाशाद्यौ।
• • “फिर बीच में कई नाम दूरियों में डूब जाते हैं। फिर कई नाम सुनाई पड़ते हैं :
पुष्पकास्पद, भुवःस्वर्भूः, तपःसत्य, लोकालोकोत्तम, शरणावती, अमृतेश्वरी, अमृत-प्रभा, आदित्य-जयन्ती, अंचल-संपुर, परार्घ्य, महिमालय, स्वायम्भुव . . • • •फिर प्रकाश के कुछ बिन्दु : फिर प्रस्फुटन ध्वनियाँ : कुछ और नाम : कामभू, गगनाभोगा, कलिनाशिनी, पद्मावती, प्रभाचला, ज्योतिरांगी, स्वायम्भुवा, सुखावती, अमरावती, विरजा, वीतशोका, विनयावनि, भूतधात्री, पुराकल्पा, अजरा, अमरा, ऋतम्भरा. . .
• • •फिर ऊपर जाती नील-सिन्दूरी सीढ़ियों जैसे कुछ और भी नाम . योगी ऋषभ की ध्यान-समाधि में झलके :
प्रतिष्ठा, ब्रह्मनिष्ठो:, केतमालिनी, अनिदिता. मनोकाम्या, तमःपारा, अरत्ना, संरत्ना, रत्नकोशा, अयोध्या, अपरा, परा, ब्रह्मपरा, शिवायनी, शिवेश्वरी, नादिनी, बैन्दवी, कलावती, नाद-बिन्दु-कलातीता परा कला परब्राह्मी
सरस्वती और जैसे ये सारी मंत्र-ध्वनियाँ अनुलोम चक्रवेध करती हुई मूलाधार की अन्तिम भूमि में गहराने लगीं। पिंडस्थ और रूपस्थ होने लगीं। अक्षरायमान हो कर पदस्थ होने लगीं। अनेक बीजाक्षर वातामण्डल में मूर्त हो कर तैरने लगे। और उनकी विचित्र अग्नि-प्रभाओं से समवसरण की मूल भूमियों
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