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________________ २९९ अभी छोड़ दूंगी, तो अन्य शत्रु राजा भी उसे अकेला पा कर कौशाम्बी पर चढ़ आयेंगे। तब मेरा आप तक पहुँचना भी दुःसाध्य हो जायेगा। _ 'इसी से हे धीरवीर अवन्तीनाथ, आप कुछ समय धैर्य धारण कर मेरा तथा मेरे पुत्र और राज्य का संरक्षण करें। तब आप जैसे वीर के होते मेरे पुत्र और कौशाम्बी का पराभव कौन कर सकेगा ? 'इस बीच आप से विनती है कि उज्जयिनी से ईंट-पत्थर-चूना आदि मँगवा कर, कौशाम्बी के चारो ओर परकोट बंधवा कर, उसे सुदृढ़ सुरक्षित करवा दें। हमारी नगरी कोटविहीन और खुली है । परकोट हो जाये और नगरी सुरक्षित हो रहे, तो एक दिन वही आपको दूसरी राजधानी हो जायेगी । आशा है, आप जैसे छत्रपति लोकपाल अपने योग्य करेंगे।' चण्ड प्रद्योत की छावनी में पहुँच कर जब दूत ने महारानी का यह पत्र उसके हाथ दिया, तो पढ़ कर वह हर्षित और रोमांचित हो उठा। उसे लगा कि मृगावती उसकी हो गयी, और उसका एक और अन्तःपुर कौशाम्बी में खुल गया । प्रद्योत ने कहला भेजा, कि उसके रहते मृगावतो और उदयन का कोई बाल बाँका नहीं कर सकता। अनन्तर चण्ड प्रद्योत ने अगले ही दिन राजाज्ञा प्रसारित कर दी, कि उसकी सेनाएँ कौशम्बी के चारों ओर सुदृढ़ दुर्ग-रचना में जुट जायें। फिर अपनी कुमत पर आये अपने चौदह माण्डलिक राजाओं को, उनके परिकर-परिवार के साथ उज्जयिनी और कौशाम्बी के बीच श्रेणिबद्ध रूप से बसा दिया। इसके उपरान्त अपने हजारों सैनिकों को दोनों राज-नगरों के बीच शृंखलाबद्ध रूप से नियोजित कर, उज्जयिनी से कौशाम्बी में ईंट-पत्थर आदि निर्माण सामग्री हाथों-हाथ पहुँचाना आरम्भ कर दिया । बहुत तेजी से विशाल दुर्ग-प्राचीर चुना जाने लगा। स्वयम् अवन्तीनाथ और उसके चौदह माण्डलिक राजा निर्माण के मोर्चों पर आ डटे । प्रद्योतराज स्वयम् अपने हाथों नौंवें खोद कर, कौशाम्बी के नूतन दुर्ग की बुनियादें डालने लगा । उसके सहयोगी राजा निपट राज-मजूरों की तरह पंक्ति में खड़े हो कर ईंट-पत्थर ढोते हुए कौशाम्बी पहुँचाने लगे। कल जो अनाचारी आततायी कौशाम्बी पर सत्यानाशी आक्रमण करने को चढ़ आया था, वह ना कुछ समय में ही घर आये सज्जन अतिथि की तरह वत्सदेश के संरक्षण में लग गया। प्रजाएँ देख कर चकित, स्तब्ध रह गईं। 'यह क्या चमत्कार हुआ ? क्या रानी ने आत्म-समर्पण कर दिया ? · · भाई, त्रिया-चरित्र को कौन जान सकता है ?' ऐसी अनेक अफ़वाहें सर्वत्र व्याप गईं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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