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________________ २९६ वे विस्मित, विमूढ़, विमुग्ध हो रहे । सहसा ही जाँघ पर अंकित काले तिल-लांछन को देख राजा चौंक उठे। · · क्षण मात्र में वे क्रोध से लाल हो गये। अवश्य ही इस चित्रकार ने मेरी पत्नी को नग्न देखने की धृष्टता की है, उसे भ्रष्ट किया है, नहीं तो विपुल वस्त्रों में छुपे लांछन को यह दुराशय कैसे जान सका ? राजा का कोपानल भभक उठा । उसने पुष्पदन्त को अपने रक्षापति के हाथों सौंप दिया, और आदेश दिया कि उसे कठोर दण्ड दिया जाये। तब अन्य चित्रकारों ने राजा से मिल कर निवेदन किया कि : 'हे राजेश्वर, इस चित्रकार को एक यक्ष-देवता से यह वर प्राप्त है, कि वह किसी के भो एक अंश को देख कर उसका राई-रत्ती सम्पूर्ण चित्रांकन कर सकता है। इसने अपनी पवित्र अन्तर्द ष्टि से सौन्दर्य का अन्तःसाक्षात्कार करके, तटस्थ भाव से केवल सौन्दर्यचित्रण किया है । अन्यथा वह निरासक्त और निरपराध है।' शंकाग्रस्त राजा ने परीक्षार्थ किसी कुबड़ी दासी का एक अंग पुष्पदन्त को दिखा कर, उसका चित्रांकन करने का आदेश दिया। तादृष्ट और परिपूर्ण चित्र सामने पा कर, राजा आश्वस्त तो हुआ, फिर भी अपनी प्रिया के नग्न सौन्दर्य का ऐसा बारीक चित्रांकन करने की धृष्टता करने के लिये, पुष्पदन्त के दायें हाथ का अंगूठा कटवा दिया। चित्रकार को राजा के अत्याचार से पराहत और सन्तप्त देख यक्षराज सुरप्रिय प्रकट हुआ। उसने वर दिया कि- 'जा, आज के बाद तेरा बाँया हाथ भी दाँयें हाथ की तरह ही सहज चित्र आँक सकेगा !' पुष्पदन्त एक उच्चात्मा और सात्विक प्रकृति का रूपदक्ष था। यक्ष का हृदय जीत कर और उससे वरदान प्राप्त कर के, उसने साकेतपुरी में लोकत्राण का महान अनुष्ठान किया था। पर जब उसके साथ अन्याय हुआ, तो उस कलाकार की स्वतंत्र चेता आत्मा विद्रोह कर उठी। · · उसके मन में एक भयानक संकल्प जागा । वह अपनी तूलो की ख़ामोश ताक़त के बल, इन गर्विष्ठ राजेश्वरों के तख्ते हिला देगा। पुष्पदन्त इसी प्रत्यावेश में कौशाम्बी छोड़ कर, महा प्रतापी अवन्तीनाथ चण्ड प्रद्योत की कला-विलासी नगरी उज्जयिनी में जा बसा। उसने महारानी मृगावती के पूर्वोक्त चित्र की एक और ठीक वैसी ही अनुकृति अंकित की, और उसे चण्ड प्रद्योत को भेंट किया। राजा अवाक् मुग्ध स्तब्ध देखता रह गया । फिर बोला : Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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