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________________ इस सम्वाद से सारी साकेत नगरी आनन्द में झूम उठी । जन-जन ने आदि भय-आतंक से मुक्ति की गहरी साँस ली । यक्ष के पूजा-महोत्सव में प्रजाजनों ने पुष्पदन्त का भी पर्याप्त पूजन-अभिनन्दन किया।· · · और शीघ्र ही वह कौशाम्बी लौट आया। वहाँ भी उसने भारी लोक-सम्मान पाया । उन्हीं दिनों एकदा कौशाम्बीपति महाराज शतानीक अपनी लक्ष्मी से गर्वित होते, अपनी राज-सभा में बैठे थे। उन्होंने परदेश जाते-आते एक दूत से पूछा कि : 'हे राजदूत, क्या कोई ऐसी विभूति है, जो अन्य राजाओं के पास हो, और हमारे पास नहीं हो ।' दूत ने नम्रीभूत हो कर कहा : 'महाराज, हमारे यहां कोई चित्रसभा नहीं है। यदि यह अभाव न रहे, तो कौशाम्बी से पूर्णतर कोई राज्य पृथ्वी पर नहीं।' __ सुन कर राजा ने वत्स देश के सारे चित्रकारों को आमंत्रित किया, और चित्रसभा की स्थापना की । उन्हें राजमहालय के परिसर में ही अपने-अपने चित्रालय बनाने को भूमि बाँट दी गयी। योगायोग कि युवान चित्रकार पुष्पदन्त को अन्तःपुर के निकट की भूमि मिली। . . एक दिन अपने चित्रालय में चित्रांकन करते हुए पुष्पदन्त को अचानक महल की जाली में से एक रक्त कमल जैसी लाल पगतली दिखाई पड़ गयी। उसकी अन्तर्दृष्टि में झलका : यह तो महारानी मृगावती की पगतली है । वह प्रत्यायित हुआ, और अद्भुत सौन्दर्य से उन्मेषित हो उठा । यक्ष-प्रीति से प्राप्त परोक्ष के साक्षात्कार की विद्या के बल, उसने वत्सदेश की माहेश्वरी का चित्र आँकना शुरू कर दिया। चित्र सांगोपांग उभरता आया। जब वह रानी के नेत्रों को अन्तिम स्पर्श दे रहा था, तभी अचानक एक मसि-बिन्दु मगावती की चित्रित जाँघ पर आ कर गिरा । चित्रकार ने तुरन्त उसे पोंछ दिया। बिन्दु फिर गिरा, तो उसे भी पोंछ दिया । फिर तीसरी बार वह काला बिन्दु रानी की जाँघ पर ठीक उसी जगह आ कर पड़ा। विचक्षण चित्रकार को तत्काल बोध-सा हुआ, कि निश्चय ही इस स्त्री के उरुप्रदेश पर वैसा कोई तिल या लांछन होना चाहिये। तो यह लांछन भले ही रहे, मैं अब इसे पोडूंगा नहीं। · · ·और उसने मृगावती के चित्र को समापित कर के चित्रालय की दीवार पर टाँग दिया। अचानक एक सुबह राजा उस कला-नगरी में चित्रकारी देखने आ पहुँचे। पुष्पदन्त के चित्रालय में अपनी प्राणेश्वरी महारानी का सांगोपांग चित्र देख कर, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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