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किया । महाशिव के तृतियाक्ष समान रुद्राक्ष धारण किया । नवीन रेशमी वस्त्र पहने । मुख पर पवित्र वस्त्र का 'आठपड़ा' (आठ तहों वाली पट्टी) बाँधा, ताकि यक्षमूर्ति और चित्र को उसके श्वास की कोई मलिनता स्पर्श न कर पाये । और तब नयी पींछियों और चमकदार रंगों की मंजूषा ले कर वह यक्ष प्रतिमा के समक्ष जा बैठा । और अत्यन्त पूजा भाव से चित्रांकन किया । अनन्तर वह यक्ष को नमित हो कर बोला :
'हे सुरप्रिय देवश्रेष्ठ, लोक के श्रेष्ठ चित्रकार भी आपका चित्र आँकने में समर्थ नहीं, तो मैं तो एक दीन मुग्ध बालक मात्र हूँ। तथापि हे यक्षराज, अपनी शक्ति भर जो भी युक्त-अयुक्त किया है, उसे अपने बालक की पूजा जान कर अंगीकार करें । भूल-चूक क्षमा कर दें, क्यों कि आप निगृह और अनुगृह करने में समर्थ हैं ।'
सुन कर चिर काल से प्रेम और आदर का भूखा यक्ष-देवता गद्गद् हो उठा। बोला :
'वत्स, मैं तुझ पर प्रीत हुआ, वर माँग ।' पुष्पदन्त बोला :
'देवता, जो आप सच ही प्रसन्न हुए हैं, तो यही वर दें कि आज के बाद आप किसी चित्रकार की बलि नहीं लेंगे।'
यक्ष बोला :
'मैंने तुझे मारा नहीं, इसी से यह तो स्वतः सिद्ध है कि भविष्य में वैसा न होगा। लेकिन हे भद्र, अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिये कोई और वर माँग ले ।'
युवान चित्रकार और भी नम्रोभूत हो कर बोला
'हे देव, आपने इस नगर में से महामारी का निवारण कर दिया, मैं तो उसी से कृतार्थ हो गया।'
यक्षदेव और भी प्रीत, गद्गद् हो कर बोले :
'हे सौम्य, तेने परमार्थ के लिये ही वरदान माँगे, इससे मैं अत्यन्त प्रसन्नोदय हुआ। जा तुझे मेर। वरदान है, कि आज के बाद तेरी चित्रकला पश्यन्ती हो कर, किसी भी मनुष्य, पशु, देव का एक अंश मात्र देख कर ही, उसके सर्वांग का समग्र आलेखन करने की शक्ति पा जायेगी। तथास्तु, आयुष्यमान् !'
कह कर यक्षराज अन्तर्धान हो गया ।
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