________________
२९३
अन्धकार वासी यक्ष और प्रेतात्मागण । वे अपनी अधोगामी देवी शक्तियों से भयभीत प्रजाओं का पीड़न करके अपनी प्रभुता लोक में चलाते थे । उस काल के अज्ञानी मानव-चित्त पर भय का कालभैरव ही राज्य कर रहा था। बाद को महावीर ने अपने तपस्याकाल में शूलपाणि यक्ष को अपनी निर्भयता से जय करके, यक्षों की हत्यारी सत्ता को समाप्त कर दिया था । और आज तो आर्यावर्त की चेतना एक नये ही लोक में जैसे उत्तीर्ण हो गई है । - - -
लेकिन जब महावीर परिदृश्य पर प्रकटे नहीं थे, तब कौशाम्बी के एक चित्रकार ने अपनी तूली के चमत्कार से साकेत के सुरप्रिय यक्ष का हृदय जीत लिया था । कलाकार का यह परित्राता रूप सदा गुप्त और अनपहचाना ही रहा । उसकी आत्माहुति को भी कौन जान पाता है ? कलाकार उदयन की माँ मृगावती का हृदय, कलाकार की इस नियति के स्मरण से भर आया ।
और बहुत कातर हो गईं वे । उन्हें याद आया कौशाम्बी का वह चित्रकार पुष्पदन्त, जो एक बार साकेतपुरी में एक वृद्धा के यहाँ जा कर ठहरा था। वृद्धा का पुत्र नीलाक्ष स्वयम् भी एक रूपदक्ष चित्रकार था । दोनों में गाढ़ मैत्री थी, और इसी से पुष्पदन्त नीलाक्ष के पास आ कर टिका था। उन्हीं दिनों सुरप्रिय यक्ष का वार्षिक महोत्सव निकट आ पहुँचा था । और इस बार चिट्ठी नीलाक्ष के नाम की निकली थी।
वृद्धा पुत्र-वियोग को सामने पा कर रात-दिन रुदन-विलाप करने लगी थी। देख कर पुष्पदन्त बहुत हताहत हो गया । उसने वृद्धा को सान्त्वना दी कि वह निश्चिन्त हो जाये, नीलाक्ष को वह न जाने देगा, स्वयम् ही उसके बदले जा कर यक्ष का चित्रांकन करेगा । वृद्धा ने रो कर कहा-'नहीं, तुम क्यों जाओगे? तुम भी तो मेरे ही पुत्र हो । और तुम्हारी माँ-बहन भी तो कहीं तुम्हारी राह देखती होगी। क्या उनसे उनका भाई और बेटा छीनंगी?' वृद्धा को पुष्पदन्त ने समझाया, कि उसकी चित्रविद्या अमोघ है, और उससे वह यक्ष को अचूक प्रसन्न कर, स्वयम् भी उससे उबर आयेगा। वृद्धा को जाने कैसे उसके आश्वासन पर प्रतीति हो गई।
पुष्पदन्त ने उस मर्म को समझ लिया था, जिसे जन-साधारण समझ नहीं पा रहे थे । उसे लगा कि यक्ष का सही चित्र आँकने के लिये, पहले उसे समझ कर उसके व्यक्तित्व और अहम् का विनय करना होगा । सो पुष्पदन्त ने ठीक मुहूर्त आने पर, इस तरह तैयारी की, जैसे किसी पावन पूजा-अनुष्ठान के लिये जा रहा हो । उसने छट्ठ का तप किया, स्नान कर चन्दन विलेपन
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org