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तथा शूरातनों से कहाँ फुर्सत ? और त्रिलोकपति महावीर किसे पहचानेंगे या पुकारेंगे, कहा नहीं जा सकता।
यह सब सोचते हुए, महारानी का मन बहुत कातर, उदास हो गया। वह सुदूर अतीत के छोरों तक भटकता चला गया । याद हो आये वे दिन, जब समवयस्क उदयन और महावीर किशोर थे। और दोनों ही अपने-अपने सपने की खोज में कुंवारे जंगलों को बींधते फिरते थे । उदयन अपनी कुंजर-विमोहिनी वीणा से, और महावीर अपनी पूछती आँखों की सर्वभेदी जिज्ञसा से । उन दोनों ही को तब क्या पता था, कि महारानी-माँ उस काल कितने बड़े संकट से गुजरी थीं।
___ वे आज सोच रही हैं, कि एक अन्तर-दर्शी चित्रकार की पीछी कैसे एक साथ कई जीवनों और सम्बन्धों के भाग्य बदल सकती है । राज्यों और जनपदों के इतिहास को एक नया मोड़ दे सकती है । और इतिहास में वह चित्रकार सदा अनपहचाना ही रहता है । . . . और उस कथा की नायिका वे स्वयम् रहीं !
· · · मृगावती उस पूरे अतीत को इस क्षण फिर से जी रही हैं । याद आ रहा है, साकेतपुर में तब सुरप्रिय यक्ष का देवालय था । वहाँ प्रति वर्ष लोग उसकी प्रतिमा का चित्रांकन करवा कर, उसका महोत्सव करते थे। जो चित्रकार उसका चित्र ऑकता, उसे यक्ष लील जाता था। और चित्रकार चित्र न आँके, तो यक्ष नगर में महामारी विकुक्ति कर देता था। इससे भयभीत हो कर सारे चित्रकार उस नगर से पलायन करने लगे । अपनी प्रजा में महामारी उत्पन्न होने के भय से राजा ने चित्रकारों को जाने से रोका । उनकी ज़मानतें लेकर, उनके नाम की चिट्ठियाँ यमराज के कारागार जैसे एक बड़े घड़े में डाल दी गईं । प्रति वर्ष एक चिट्ठी निकाली जाती, और जिसका नाम निकलता, उस चित्रकार को यक्ष का चित्र आँकने भेज दिया जाता । उसकी बलि चढ़ जाती, और प्रजा भय-मुक्ति का महोत्सव मनाती । यह व्यवस्था राजा और प्रजा ने मिल कर की थी। प्रजा के त्राण को सामने रख कर । और एक परित्राता कलाकार प्रति वर्ष बलि चढ़ कर गुमनाम हो जाता था।
.. कैसे अज्ञान में डूबी थी उस काल की प्रजा । ईश्वर का स्थान हीन देवयोनि के यक्षों, पिशाचों और व्यन्तरों ने ले रक्खा था। तीन-चौथाई प्रजा को शिक्षा से वंचित रक्खा जाता था, और वह भय और अज्ञान में जी रही थी । भय ही उनका भगवान हो गया था । इस भय के देवता थे, अवचेतना के
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