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________________ भव को जान लेते हैं। इनके पवित्र चन्दनी जलों में सर्वज्ञ प्रभु के स्पर्श प्रवाहित हैं । जो मनुष्य इनमें अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं, उन्हें बीते हुए तीन भवों, आगामी तीन भवों तथा वर्तमान भव के सारे जाने-अनजाने आत्मीयों के ममताकुल मुखड़े दिखायी पड़ जाते हैं। ___इसके आगे ‘इन्द्रध्वज' नामा एक जयांगन है। वहाँ विपुल जाज्वल्यमान चित्रकारियों से शोभित अनेक निकेतन हैं । उनमें सुर, असुर, मनुज, दनुज, राक्षसपिशाच अपने वृत्ति-भेदों को भूल कर साथ-साथ रहते हैं, और धर्मचर्या करते हैं। इन भवनों की दीवारों पर पुराण-इतिहास की अनेक मार्मिक कथाएँ, नाना-भावी संवेदन-रंगों में चित्रित हैं। पाप और पूण्य यहाँ आलिंगन-बद्ध हैं। वे दोनों ही निराविल चैतन्य के जल में विसर्जित हो रहे हैं । देखते-देखते यहाँ स्वर्ग के चित्र नरक के चित्र हो जाते हैं : और नरक के चित्र स्वर्ग के चित्र हो जाते हैं । पुण्य और पाप दोनों ही यहाँ पराजित हो गये हैं। ___इन्द्रध्वज के मध्य में एक विशाल हिरण्य-पीठ विद्यमान है । वह भगवान की जयलक्ष्मी की मूर्तिमान देह-सा प्रतापी और आकर्षक है। इसके बाद एक हजार प्रवाल स्तम्भों के मध्य में 'महोदय' नामक महामण्डप है। उसमें 'मूर्तिमती' नाम को श्रुतदेवी निवास करती है । यह श्री भगवान की पारमेश्वरी प्रिया महासरस्वती का राज्य है । श्रुतदेवी के आसपास अनेक मनीषियों से परिवरित भगवान श्रुतकेवली बिराजते हैं। और वे सर्वकाल पवित्र श्रुत का व्याख्यान करते रहते हैं । 'महोदय मण्डप' की परिक्रमा में पान के आकार वाले कई कथा-मण्डप हैं। उनमें बैठ कर मुक्ति-कामी कथा-प्रेमी जन आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेदिनी, निर्वेदिनी नामा चार प्रकार की कथाएँ करते रहते हैं । ये काव्य और साहित्य की जगतियाँ हैं । इनसे लगे हए आदि ऋद्धियों के स्वामी ऋषियों के सिद्धिपीठ हैं । वहाँ वे ऋषिगण नाना अज्ञात ऋद्धियों-सिद्धियों, तंत्र-मंत्र-यंत्रों, और विद्याओं के निगूढ़ रहस्य खोलते रहते हैं। ____ यहाँ से आगे चलने पर, वैक्रयिक देहधारी यति ऋषभ नाना लता-वितानों से मंडलित एक हेमकूट के प्रान्तर में आ खड़े हुए हैं । उसकी मक्ता-सम्पुट जैसी चूलिका में श्रीकल्पा नामा एक अप्सरा रहती है। उसके उरोजों के गहराव में ऐसी गहन वापी है, जिसकी सम्भोग-सुरा पी कर सारस्वत ऋषिगण दीर्घकाल कैवल्यरस के नशे में झूमते रहते हैं । बड़े-बड़े विरागी, ध्यानी मुनि, अपने व्रत-संयम को भूल कर इस मायावती के स्तनपान को तरस जाते हैं। पर ऐसी मानिनी और महिमावती है यह प्रमदा, कि कवि की सिद्ध वाणी के आघात बिना इसके द्वार नहीं खुल सकते हैं । यह हेमकूट-राज्य 'वारुणी' नामकी अनेक नाट्यशालाओं से घिरा हुआ है । इन रंग-शालाओं में सारे समय कल्प-वासिनी देवियाँ नृत्य-लास्यों में झूमती रहती हैं । उनकी नपुर-झंकारों में काव्य की प्रेरणा, उज्ज्वल जल के स्रोतों की तरह उमड़ती है। . . . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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