SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८ और सामने ही दिखायी पड़ रहा है सतखण्डे द्वारों वाला रत्नों से आकीच तृतीय प्राकार । इस प्राकार के पूर्वीय द्वार को कोई विजय कहता है, कोई विश्रुत कहता है । कोई कीर्ति, बिमल, उदय, विश्वधुक नाम से इसे पुकारते हैं । कोई-कोई इसे वासवीर्य या वरद्वार भी कहते हैं। पश्चिम द्वार जयन्त, अमित, सार, सुधामा, अक्षोभ्य, सुप्रभ, बरुण और वरद, इन आठ संज्ञाओं से पहचाना जाता है। और उत्तर द्वार अपराजित, अर्च, अतुलार्थ, अमोघ, उदित, अक्षय उदित, कौर और पूर्णकाम नानों से अंकित है । दक्षिण द्वार वैजयन्त, शिव, ज्येष्ठ, वरिष्ठ, अनब, धारण, याम्य, अप्रतिष जैसे नामों से बोधगम्य होता है । हर व्यक्ति आत्ना अपनी प्रकृति, रुचि, वासना के अनुसार इन द्वारों को पुकारती हुई, इनमें प्रवेश करती है। हर चेतना की अत्यन्त निजी खोज के उत्तर में खुले हैं ये द्वार । इन द्वारों में प्रवेश करते ही, सामने एक गोलाकार दर्पण -लोक आता है। इसके सारे ही आयाम दर्पणमय हैं । जगह-जगह मनिमय दर्पणों के महल हैं, अटारियाँ हैं । दर्पणों की कर्श, दर्पणों की दीवारें, दर्पणों के ही द्वार-वातायन, दर्पणों की ही छतें। और बीच-बीच बने उद्यानों में माणिक्य- वेदियों पर विशाल लोकाकार दर्पण खड़े हैं । इनके समक्ष खड़े होते ही, देव-मुनि, नर-नारी अपने आप को भीतर-बाहर नग्न देख लेते हैं । और मन की, मन से भी गोषन चाह को साक्षात् कर लेते हैं । और उस अत्यन्त निजी चाह की, अत्यन्त निजी पूर्ति पा कर बे क्षण भर ही सही, पूर्णकामता अनुभव करते हैं । 1 • अचानक यति ऋषभसेन को श्रवण की संचेतना हुई। और चारों ओर के मण्डलों से तथा समस्त गोपुरों के गवाक्षों से तुमुल जयकारें सुनाई पड़ने लगीं : जय हो, कल्याण हो, मंगल हो ! त्रिलोकीनाथ महावीर प्रतिपल प्रतीक्षित हैं; जयबन्तो, जयवन्तो, जयबन्तो ! चरम तीर्थंकर महावीर हमें पुकार रहे हैं; जयबन्तो, जयवन्तो, जयवन्तो ! 'नाना उक्तियों और भावार्थों वाली अविराम जयध्वनियों से समस्त समवसरण - भूमि आन्दोलित है । और योगिराट् ऋषभसेन को दिखायी पड़ रहे हैं, कई हिरण्यस्तूपों के पुष्पराग मणियों से आलोकित शिखर । इस स्तूपों की जगती की चारों दिशाओं में रत्न वेदियों और द्वारों से मण्डित चार विशाल वापिकाएँ हैं । इनमें स्नान करने वाले जीवात्मा, तत्काल अपने पूर्व के एक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy