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___ • • गोपुरों के पार, अनेक तोरणों की परम्परा में से वज्रमयी वेदी का वर्तुल विस्तार दिखायी पड़ता है । उसकी परिक्रमा के दोनों पावों में केशरिया, लाल, श्वेत ध्वजाएँ पंक्तिबद्ध रूप से फहरा रही हैं। उनके किनारों में गुंथी छोटी-छोटी घंटियाँ हवा में रुनझुना रही हैं । हंस, गरुड़, माला, सिंह, हाथी, मगर, कमल, वृषभ और चक्रों के दस विभिन्न चिन्हों से वे ध्वजाएँ चिन्हित हैं । प्रत्येक दिशा में एक करोड़, सोलह लाख, चौसठ हज़ार ध्वजाओं के पट घंटियों की शीतल वायवी रुनझुन के साथ अनुपल फड़फड़ाते हैं, और यों चारों दिशाओं की वीथियों में करोड़ों ध्वजाएँ, एक से एक आगे बढ़ती हुई अछोर में लीन होती जाती हैं। रंग और ध्वनियों के इस विस्तार में, योगी ऋषभ एक शून्य के किनारे आ खड़े हो जाते हैं। और अधर में से रंग और ध्वनियों के सोते फटते देख लेते हैं । · · · यह साक्षात्कार की अटारी है !
_ वज्रमयी वेदी की चारों दिशाओं में पाँच खण्डों वाली गोल नत्यशालाएँ हैं। उनमें भवनवासी देवों की देवांगनाएँ अविराम नृत्य करती रहती हैं। उनकी तालों और झंकारों में मक्ति के लिए छटपटाती आत्मा की विकल वासना, अनेक कंचित भंगों और मीड़-मुर्छनाओं में निवेदित होती रहती है। इसके अनन्तर फिर चार तोरण-द्वारों वाला सुवणिम प्राकार है । उस प्राकार के कंगूरों पर रत्नमालाओं से शोभित, श्रीफल-कमल से आच्छादित, पन्ने के जल भरे कलशों की हारमाला है। इस कलश-मण्डल को देखते ही सुन्दरियों के स्तनों में नितनव्य यौवन हिलोरे लेने लगता है। द्वार-पक्षों में भवनवासी देव कल्पवृक्षों की डालें छड़ियों की तरह धारण किये रात-दिन पहरा देते रहते हैं । 'जागते रहो, जागते रहो' की पुकारों से वे हज़ारों आगंतुक आत्माओं को उद्बोधित करते रहते हैं ।
प्राकार के भीतर प्रवेश करते ही, जो परिमण्डल है, उसमें जगह-जगह नाना विचित्र उपलों की कुम्भियों पर इन्द्रगोप शिला के भव्य धूपायन अवस्थित हैं। उनमें से अष्टांग-धूप की धन-लहरें उठ रही हैं । मानो कि रमणी के लहरदार केशपाश में, उसकी मोहिनी नग्न हो कर, अपनी आहुति दे रही है।
उसके आगे की मध्यमा भूमि में सिद्धार्थ नामा कल्पवृक्षों के वन हैं । उनकी जामनी उजियालों में, जहाँ-तहाँ ऊँची क्षीर-स्फटिक शिलाओं के आरपार सिद्धों की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं । क्षण-क्षण रंग बदलते इस क्षीर-स्फटिक में अमूर्त और मूर्त एक-दूसरे में संक्रान्त हो रहे हैं । आरपार कटी ये निराकार सिद्ध पुरुषाकृतियाँ खड़गासन हैं। इनमें से मानो निरन्तर देश-कालों का रंगीन कारवाँ चलता रहता है।
इसके उपरान्त आती है, गुहाकार द्वारों वाली 'मनोकाम' नामा वनवेदी। उसकी प्रत्येक बीथी में तोरणों से युक्त नौ-नौ स्तूप हैं। उनके अलिन्दों में मुनियों और देवों के सभा-कक्ष हैं। भोगी और योगी के बीच वहाँ सतत संवाद चल रहा है ।
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