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हैं । इनकी पुखराजी डालियों और इनके तनों की छालों में असंख्य जिन मुद्राएं सहज ही उत्खनित हैं। इनकी कोटरों के गहराव में बेशुमार जिन-प्रतिमाएं मणियों-सी झलमलाती दिखायी पड़ती हैं। इन बिल्लौरी गुहाओं में, श्वेत रंग अनेक रंगों में फटता है : और वे अनेक रंग, फिर उस एक श्वेत रंग में निर्वाण पाते रहते हैं।
__ और इन वनों के परिप्रेक्ष्यों में जहाँ-तहाँ तिकोनी, चौकोनी, वर्तुलाकर, मणि-तोरण मंडित बावड़ियाँ हैं। कहीं मत्स्याकार, कहीं मकराकार, कहीं शंखाकार । उनकी नीली, हरी, भूरी, ललौहीं सीढ़ियों पर, लहराते पानियों ने अपनी लयें अंकित कर दी हैं। गहराइयों की इस लय-भाषा में अक्षरों के अनेक भंग मूर्त होते रहते हैं। हंसों, चकवों और अनेक जल-पंखियों के कलरव में उन बावड़ियों की गोपनताएँ प्रेमालाप करती हैं । . . . __आर्य ऋषभ का मन सौन्दर्य से इतना ऊमिल हो उठा है, कि चारों महावनों की बावड़ियों के नाम अनेक भावार्थों के साथ उनके मन में स्फुरित हो रहे हैं । . . वहाँ वे अशोक वन की नंदा, नंदोत्तरा, आनन्दा, नन्दवती, अभिनन्दिनी और नन्दघोषा नामा छह बावड़ियाँ हैं : उनकी लहरों में आनन्द नाना रूपों, आकृतियों, आयामों में ध्वनित और तरंगित है । और वह सप्तपर्ण वन की विजया बावड़ी जाने कब अभिजया हो गयी। अभिजया की कोख से जयन्ती बावड़ी फूट पड़ी । जयन्ती के जल उछल-उछल कर, वैजयन्ती हो गये । वैजयन्ती उलट कर उसका तल आकाश में खुल गया । तो वह अपराजिता हो गयी। और अपराजिता पर एक अन्तरिक्षीय वट उग आया, तो वह जयोत्तरा हो गई।
__ और कितनी रंगिम नीहारों से छाया है वह चम्पक वन का प्रदेश । वहाँ की कुमुदा बावली में संकोचिनी लज्जा रहती है । वहाँ की नलिनी बावली में प्राणियों के नील स्नायु-जाल चित्रित हैं । पद्मा और पुष्करा बावलियाँ सहेलियों सी गलबाहीं डाले, मन की कंचित गांठे खोल रही हैं। और वह विकचोत्पला बावड़ी अपने उद्दाम यौवन वक्ष को उछालती हुई, कमला हो गई। इस कमला बावली को जल-कंचुकी में से निधियाँ उफनाती रहती हैं। . . .
और यति ऋषभ चकित हैं देख कर, कि आम्रवन के कादम्ब झरते गहरे अन्धकार को बावड़ियाँ ही सब से उज्ज्वल हैं। उस रसाल अंधियारे की गलियों में प्रभासा, भास्वती, भासा, सुप्रभा, भानुमालिनी और स्वयंप्रभा बावलियां, उत्तरोत्तर संक्रमणशील हैं। वे ज्योति की नाना आभाओं वाली कन्याओं-सी विचर रही हैं।
योगी ऋषभ की आँखें, देखते-देखते जैसे स्वयम् यह रचना हुई जा रही हैं।
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