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श्री भगवान ने कोई उत्तर न दिया । आचार्य जमालि ने भगवान के मौन को अनुमति का लक्षण माना । __.. और आचार्य जमालि ने अपने पाँच-सौ शिष्यों को अनुगमन करने का आदेश दे दिया । और वे समवसरण से प्रयाण कर गये। प्रियदर्शना अनवद्या के नाड़ीमंडल में बिजलियाँ टूटने लगीं। वह हताहत हो कर, एक टक श्री भगवान की ओर अपलक देखती रह गई । हाय, वह अर्धांगिनी नारी हो कर, क्या करे ? एक ओर जगदीश्वर पिता हैं, दूसरी ओर वह है, जो उसके तन-मन का स्वामी · · · था ? . . . है ? था. . . ? है . . . ?
अनजाने ही प्रियदर्शना गहरे सोच में डूब गई :
. . . 'हाय, हमारा युगल यज्ञ टूट गया ? संयुक्त सिद्धि का महास्वप्न भंग हो गया ? हमने प्रतिज्ञा की थी परस्पर: कि जीवन में साथ रहे, तो मुक्ति में भी साथ ही रहेंगे । लेकिन हाय, स्वयं पिता ने अनवद्या को पति से बिछुड़ा दिया। पर मैं किसी की पत्नी नहीं, श्रमणी हूँ। अर्हत् की सती हूँ। मुझे छोह क्या, विछोह क्या ? मिलन क्या, बिछुड़न क्या ? . . .' और प्रियदर्शना के भीतर ही भीतर रुलाई घुमड़ती चली आई ।
तभी अचानक सुनाई पड़ा :
'आर्या अनवद्या, अर्हत् तुम्हें बिछुड़ाने नहीं आये, परम में मिलाने आये हैं । आर्य जमालि का अनुसरण करो। वे महान्धकार के राज्य में अपने को खोजने निकल पड़े हैं। उनका हाथ नहीं झालोगी? नास्ति के वीरानों में, तुम्हीं तो अस्ति का आलोक और आश्वासन हो, अनवद्या । यही जिनेश्वरों की जाया के योग्य है।'
एक अनाहत मौन का प्रसार ।
'जो क्रियमाण है, वह कृत है, इसकी सम्बोधि और साक्षी हो तुम, अनवद्या। अपनी एक सहस्र श्रमणियों के संग, आचार्य जमालि का अनुगमन करो, देवी। अविलम्ब ।'
अपने संघ सहित प्रस्थान करते जमालि की पीठ ने इस वाणी को सुना और उनके पैरों तले धरती लौट आई।
और आर्या अनवद्या प्रियदर्शना ने अविरल बहते आँसुओं के साथ प्रभु का वन्दन किया, और वे अपनी एक हजार भिक्षुणियों के संग, आर्य जमालि का अनुगमन कर गईं।
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