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'आत्मनाश करके ?' 'मैं आत्मनाश कर रहा हूँ, भन्ते ?'
'आत्मत्राण कर, वत्स्, आत्मलाभ कर, सौम्य । वैशाली का त्राण उसी में समाहित है।'
'तो फिर आत्म-लब्ध महावीर के होते, वैशाली निरन्तर आक्रान्त क्यों ?'
'क्यों कि वह महावीर से वियुक्त है । क्यों कि लिच्छवि आत्मयुक्त नहीं, संयुक्त नहीं, आत्मलिप्त हैं, आत्म-मत्त हैं ।'
'तो उसमें महावीर कुछ कर नहीं सकते ?' ___ 'महावीर कुछ करता नहीं, वह केवल होता है। उस होने में विनाश, त्राण, निर्माण संयुक्त है। उत्पाद, व्यय, ध्रुव की एकाग्र संयुति होता है अर्हत् । अनिवार्य का निवारण, सर्वज्ञ के विधान में नहीं।'
'तो उस अनिवार्य का प्रतिकार करेगा जमालि !' 'ऋमिक पर्याय में वह भी एक पर्याय हो ही सकती है।' 'लेकिन अन्तिम परिणाम ?' 'वह तो तुमने अपने हाथ में ले ही लिया, सौम्य ?' 'त्रिलोकी नाथ ने मुझे अनाथ करके छोड़ दिया !' 'तथास्तु, जमालि ! त्रिलोकीनाथ का कर्तृत्व पूरा हुआ !' जमालि की बुनियादें टूट गईं। उसके भीतर ज्वालामुखी घुमड़ने लगे।
मनियों के प्रकोष्ठ में जमालि, सिद्धासन त्याग कर, घुटने के बल सिंहमुद्रा में कटिबद्ध दीखा । सहसा ही भगवान बोले :
'जो क्रियमाण है, वह हो चुका, गौतम । जो हो रहा है, वह हो गया, गौतम !'
'जो कार्य होने की प्रक्रिया में है, वह पूर्ण नहीं भी तो हो सकता है, प्रभु ?' __ 'जो पर्याय उदय में आ चुकी है, वह अपनी चरम परिणति पर पहुँचेगी ही । कार्य के आरम्भ में कार्य की समाप्ति गभित है, गौतम । काल नहीं, परिणमन प्रमाण है'
तपाक से खड़े हो कर, जमालि ने पृच्छा की : 'तो मेरा जो अभी परिणमन है, वही मेरी चरम परिणति है, भन्ते ?'
'जो पर्याय अभी चल रही है, वह कहीं समापित हो चुकी । जो तू अभी हो रहा है, वह तू हो चुका, सौम्य ।'
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