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________________ २७६ सर्वज्ञ के प्रत्यक्ष और अनुभूत तत्त्वज्ञान पर वितर्क और टीका-टिप्पणी करने लगा । शिष्यगण प्रभु के प्रवचन से भावित और प्रत्यायित थे । वे सर्वज्ञ के वचन में बद्धमूल थे । फिर भी चुप रह कर वे आचार्य की देशना सुनते और उनकी आज्ञा का पालन करते रहते । मालि और भी उग्रतर तपस्या करने लगा, घंटों सूर्य की ओर ताकता आतापना लेने लगा । मानो सूरज को लील कर वह महासूर्य होना चाहता है ! और यों अपने तप के तेज और प्रताप से वह अपने शिष्यों पर एकदण्ड शासन करने लगा । जमालि को एक दिन समक्ष पा कर भगवान ने गौतम से कहा : 'लक्ष्य आत्मा हो, आतापना और आत्मदमन नहीं । तप किया नहीं जाता, आत्मलीन होने पर वह स्वतः होता है, गौतम । कायक्लेश नहीं, कायसिद्धि अभीष्ट है । कायक्लेश से काम मिल सकता है, राम नहीं । 'इसी से कहता हूँ, गौतम, बलात् देहदमन मत करो, प्राणदमन मत करो, मनोदमन मत करो, इन्द्रियदमन मत करो । आत्मदमन मत करो । आत्मरमण करो, और देह, प्राण, मन, इन्द्रियाँ आपोआप अपने ही में लीन हो कर, आत्मलीन हो रहेंगी ।' अचानक पूछ उठा जमालि : 'तो स्वयं प्रभु ने साढ़े बारह वर्ष ऐसा घनघोर तप क्यों किया ?' 'तप नहीं, कायोत्सर्ग किया, काया से उत्तीर्ण हो कर आत्म में अवस्थित होने के लिये । तपस्तेज से आत्मतेज प्रकट नहीं होता, आत्मतेज से तपस्तेज प्रकट होता है । महावीर ने देहनाश नहीं, देहजय किया । आत्मनाश नहीं, आत्मजय किया । कायक्लेश नहीं, आत्म-संश्लेष किया। मार को मारा नहीं, उसे भी आलिंगन में ले कर तार दिया । " 'लेकिन महावीर के तपस्तेज को ही तो जगत झुका है !' 'नहीं, आत्मतेज को । बुज्झह, बुज्झह, हे जमालि !' 'तो तपस्या व्यर्थ है, भन्ते ?' 'व्यर्थ यहाँ कुछ नहीं । तप से स्वर्ग मिल सकता है, सम्पदा मिल सकती है, सत्ता मिल सकती है, जगत का राज्य मिल सकता है, पर राम नहीं मिल सकता ! 'महावीर की देवनगरी वैशाली को सर्वनाश की लपटों से तो बचाया ही जा सकता है ! ' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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