________________
२७५
'नहीं, वह यहाँ खो जाने नहीं आया, सारी पृथ्वी पर राज करने का स्वप्न ले कर आया है । महावीर अपने महा तप के बल यदि जगतपति हो सकता है, तो मैं क्यों नहीं ? और वह रात-दिन तपाग्नि की शैया पर ही जीने लगा । वह प्रभु-द्रोही हो कर आत्म- द्रोही हो गया । अपना ही शत्रु हो गया । वह हर पल आत्मघात में जी रहा था ।
प्रभु की दृष्टि सम थी, इसी से सर्वदर्शी थी। किसी विशेष पर ध्यान केन्द्रित न हो कर भी, उनके ध्यान से बाहर कुछ नहीं था । जमालि की विक्षिप्त और कषाय - क्लिष्ट चित्तस्थिति प्रभु से छुपी नहीं थी । उसके मन की सूक्ष्मतम गतिविधि भी उनके कैवल्य में झलकती रहती थी ।
एक दिन अचानक प्रभु ने गौतम से कहा :
'देवानुप्रिय गौतम, महा तपस्वी जमालि को उसके पाँच सौ क्षत्रिय श्रमणों के आचार्यपद पर प्रतिष्ठित कर दिया जाये ।'
'प्रभु, वह तो पहले ही प्रमत्त है, और भी प्रमत्त हो जायेगा ।'
'हो जाने दो, गौतम, उसके मान और मद को दबाओ नहीं । उसे खुल कर सामने आने दो ।'
'वह तो पहले ही द्रोही है, प्रभु, और भी प्रचण्ड द्रोही हो जायेगा ।'
'हो जाने दो, गौतम । उसके द्रोह को दबाओ नहीं, उसे खुल कर सामने आने दो ।'
'तथास्तु, भन्ते नाथ । '
' और अनवद्या को उसकी एक सहस्र क्षत्राणियों की अधिष्ठात्री बना दो, गौतम । जमालि इस पूरे गच्छ का अधिपति होगा ।'
'अनर्थ हो जायेगा, भन्ते । देवी अनवद्या का बल पा कर जमालि और भी उन्मत्त हो जायेगा ।'
' हो जाने दो, गौतम, ऋणानुबन्ध पूरे हो कर रहेंगे ।'
और जमालि पाँच सौ लिच्छवि श्रमणों के आचार्य हो गये । देवी प्रियदर्शना एक हज़ार क्षत्राणियों की अधिष्ठात्री हो गयीं । अब वे श्रीसंघ में उच्च पदासीन हो कर, सब के द्वारा सम्मानित हो गये । जमालि के हृदय में गड़ती अपमान की फाँस निकल गयी ।
प्रति दिन एक सहस्र शिष्यों द्वारा प्रणति पा कर जमालि का अहंकार खुल कर खेलने लगा । वह श्रीगुरु के पद पर आसीन हो गया । वह अपने अन्तेवासियों को अपना ही स्वच्छन्दी तत्त्वज्ञान सिखाने लगा । वह उनके समक्ष
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org