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हुआ जा सकता। और वह हुए बिना उसे चैन नहीं था । सत्ता, महत्ता, प्रभुता ! भगवान का केवल यही बिम्ब उसके मन पर छाया था। और उसे वह अपने जीवन में मूर्त करना चाहता था। वह महत्वाकांक्षी था, महदाकांक्षी नहीं था।
सत्ता की इस अरोक वासना से उद्वेलित हो कर उसने अपने को अमानुषिक तप में होम दिया। उसने बहुत उग्र और दारुण तपस्या की। छट्ठम, अट्ठम तप, मासोपवास, वर्षी तप आदि निरन्तर करता रहता था। अपोषित भूखा शरीर विद्रोह करता था। लक्ष्य में आत्मा नहीं थी, सत्ता थी। आत्म से वियुक्त सत्ता थी । वह पत्थर और लोहे तक को चबा कर सर्वोपरि सत्तासन पर चढ़ना चाहता था। सतत कायक्लेश में जी कर ही वह औरों से अपने को महत्तर अनुभव कर पाता था।
पर विचित्र था कि श्री भगवान उसके इस तप से रंच भी आकृष्ट नहीं हो सके थे । जमालि के मन में इस बात का गहरा दंश था। कई अविरत और सौम्य चर्या वाले श्रमणों पर भी प्रभु प्रीत और प्रसन्न थे । और जिस जमालि ने अपने तप में ठीक महावीर के ही उग्र तपश्चरण का अनुसरण किया, उस पर प्रभु का कभी ध्यान तक न गया। इससे उसके मन में प्रभु के प्रति कम क्षोभ और आक्रोश नहीं था। पर वह चुप रहता था, और भीतर-भीतर सुलगता रहता था । और अपनी ही मनमानी महत्ता में खोया विचरता था।
पिछले कई महीनों के विहार में उसे यह भी स्पष्ट हो गया था, कि यहाँ आ कर उसे एकदम मामूली और बेपहचान हो जाना पड़ा है । यहाँ कोई किसी को महत्व नहीं देता, पर सब एक-दूसरे के साथ सम भाव में रहते हैं, बरतते हैं । क्षत्रिय कुण्डपुर में वह महाराजकुमार था, विशिष्ट था, प्रजाओं का स्वामी था। उसे जन झुकता था । यहाँ उसकी वह विशिष्टता और इयत्ता समाप्त हो गयी है। हजारों श्रमणों में वह भी एक है। अलग कोई कहीं कुछ नहीं। इससे उसे सतत अपनी अवमानना अनुभव होती थी।
गुरुणाम्-गुरु महावीर के चरणों में जगत की सारी सत्ताएँ और महत्ताएँ आ कर झुकती थीं। समर्पित होती थीं । तब हर समय जमालि के मन में एक टीस उठती : 'इसके सामने समस्त जगत झुकता है ! • • तो मैं कोई नहीं ? मुझे कोई पहचानता तक नहीं ?' उसे तीव्र हीनभाव और तुच्छता का अहसास होता। महावीर के समक्ष उसे हर वक़्त लगता रहता, कि उसका अपमान हो रहा है, उसकी अवहेलना हो रही है । '• • • मैं वह क्यों नहीं ? क्या इस हिमालय जैसे उत्तुंग पुरुष का अनुगमन करने में ही मुझे बीत जाना होगा ? मैं स्वयं गुरु क्यों नहीं?'
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