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________________ २७३ 'महावीर के सिवाय मेरा कोई अभीष्ट नहीं, भगवन् ।' 'तो उसे ले सकते हो। उसमें अपनी चाह पूरी करो ।' 'अपने पाँच सौ लिच्छवि क्षत्रियों सहित, मैं प्रभु की आर्हती प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ । आज्ञा दें, भन्ते स्वामिन् ।' 'जानो लिच्छवि, जिनेन्द्र का राज्य पृथ्वी का नहीं । यहाँ सब हार देना होता है । अपने कुछ होने का अभिमान और भान तक खो देना होता है । जमालि न रहोगे, तो क्या करोगे ? ' 'महावीर हो कर रहूँगा ! ' 'वह भी एक मरीचिका है, सौम्य । यह नाम, यह शरीर एक दिन अन्तधन हो जायेगा ।' 'तो क्या शेष रहेगा, नाथ ?' 'एक अरूप निर्नाम महासत्ता, जिसे कोई नहीं पहचानता, सिवा अपने आपके । पर वह सब को पहचानती है ।' 'तो मिट जाना चाहूँगा । मुझे और मेरे सैन्य सामन्तों को अपने श्रमण बना लें, भगवन् । हम कृतनिश्चय हैं, लौट कर नहीं जायेंगे । प्रभु के अनुगामी हो कर रहेंगे । 'जो तुम्हारा कल्प हो, वही करो देवानुप्रियो !' 'आज्ञा दें नाथ, आज्ञा दें, आज्ञा मालि के बार-बार अनुनय करने पर भी श्रीभगवान ने कोई उत्तर न दिया । आहत हो कर उसने अपनी प्रार्थना को प्रभुपाद गौतम के निकट निवेदित किया । गौतम ने प्रभु की निश्चल नासाग्र चितवन को वह प्रार्थना निवेदित की। लम्बे मौन के बाद सुनाई पड़ा : 'यह विधान अटल है, गौतम । इसे पूरा होने दो ।' और महाराजकुमार जमालि ने पाँच सौ क्षत्रियों सहित आर्य गौतम के हाथों जिनेश्वरी प्रव्रज्या अंगीकार की । मालि को लगा कि उसके भीतर शक्ति का प्रपात घुमड़ रहा है। श्री भगवान की महाशक्ति का स्पर्श पा कर वह उन्मत्त और आल्हादित हो उठा । अपने संगियों सहित वह श्रीपाद में आपात मस्तक भूसात् हो रहा । जमाल के सामने श्री भगवान की तपस्या का आदर्श था । उसे निश्चय हो गया था, कि महावीर जैसा सत्यानाशी तप किये बिना सर्वसत्ताधीश नहीं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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