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'अनवद्य अर्हतों की दुहिता हो । अपने को पहचानो । आप को उपलब्ध होओ।'
'आहती दीक्षा प्रदान कर मुझे अपना लें, भन्ते त्रिलोकीनाथ । परम पिता के सिवाय अनवद्या को कौन कृतार्थ कर सकता है !'
शास्ता मौन हो रहे। अनवद्या उद्विग्न हो आई।
'भन्ते तात, मैं अकेली नहीं, हम एक-सहस्र-एक क्षत्राणियां शरणागत हैं। क्या नारी लिंगातीत होने में समर्थ नहीं ? स्त्री को इस चिर काल के दासत्व से तुम्हारे सिवाय कौन उबार सकता है?'
'स्वयं ही भवतारिणी हो, कल्याणी । तुम्हें कोई अन्य उबारे, तो दासत्व का अन्त कैसे हो ?'
'इतनी निराधार न करो, मेरे नाथ !'
'अर्हत् आधार देने नहीं आये, सारे आधार तोड़ने आये हैं । वे शरण देने नहीं आये, अन्तिम रूप से अशरण करने आये हैं । अशरण हो जाओ, अनवद्या।'
'अपनी सती बना लो, तो शायद वह सामर्थ्य प्राप्त कर सकूँ।' 'जिसमें सुख लगे, वही करो, ओ लिच्छवि क्षत्राणियो।'
और प्रभु का दृष्टि-संकेत पाकर, एक सहस्र क्षत्राणियों सहित प्रियदर्शना ने भगवती चन्दनबाला के श्रीपाद में भागवती दीक्षा का वरण किया।
जमालि प्रत्यंचा की तरह तना खड़ा है। उसने अपने को अवहेलित अनभव किया । उसके फ़ौलाद की धार तीक्ष्णतर हो रही है। वह उत्सर्गित नहीं, उद्यत है, कुछ कर गुजरने को ।
· · · सहसा ही उसे लगा कि उसकी धार कुण्ठित हो गयी है। उसे किसी ने दो टूक काट कर उसी के सामने डाल दिया है । वह बोल उठा :
'प्रभु मुझे अपने जैसा बना लें।' 'वह कोई बना नहीं सकता, स्वयं बन जाना होता है, लिच्छवि ।' 'मैं प्रभु की प्रभुता के योग्य नहीं ?'
'क्षत्रिय दूसरे की प्रभुता का प्रार्थी क्यों हो? जो तुम पाना चाहते हो, वह तपोबल से नहीं, तलवार से ही मिल सकता है !'
'मैं तलवार फेंक आया, भन्ते, उसे अन्तिम रूप से हरा देने के लिये ।'
‘फेंक नहीं आये, स्वयं तलवार हो कर आये हो, लिच्छवि । तो महावीर तुम्हारे सिपुर्द है । वह चाहता है कि तुम उसे काट दो, और अपना अभीष्ट प्राप्त कर लो।'
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