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और उधर अन्तःपुर के सभागार में देवी प्रियदर्शना ने अपने परिकर की एक हजार क्षत्राणियों को सम्बोधन करते हुए कहा :
'लिच्छवि वंश की जनेत्रियो, हम कब तक अपने जायों को प्रवंचक, निःसार, झूठे युद्धों में कटवाने को प्रसव पीड़ा झेलती रहेंगी। युद्ध के बल जीता राज्य कभी किसी का हुआ नहीं, होगा नहीं । आओ, हम इस मिथ्या के दुश्चक्र को तोड़ें।
__ 'वैशाली के बेटे महावीर, लोकसूर्य हो कर हमारे परित्राण को आये हैं। चलो, कल प्रातः हम उनके श्रीचरणों में समर्पित हो कर उनकी भिक्षुणियाँ हो जायें । तपस् के द्वारा अपने भीतर-बाहर के तमाम शत्रुओं को जय करके अमर राज्य की स्वामिनी हो जायें । ताकि कोई पुरुष या प्रभुता हमारे गर्भ पर बलात्कार न कर सके । यही तो वैशाली की स्वतंत्रा बेटियों और बहुओं के योग्य है।'
और एक हजार लिच्छवि क्षत्राणियों ने गद्गद् कण्ठ से समर्थन किया : ‘देवी प्रियदर्शना का आदेश हमारे सर-आँखों पर है । हम हर प्रभुता के दासत्व को तोड़ कर सच्ची क्षत्राणियों की तरह जियेंगी। हम अपने आँसू और दूध को अब मिट्टी में मिलाने के लिये नहीं बहायेंगी।
_ 'भगवती चन्दनबाला जयवन्त हों। भगवान महावीर जयवन्त हों । मातेश्वरी प्रियदर्शना जयवन्त हों !'
श्री मण्डप में पाँच सौ क्षत्रियों और एक हज़ार क्षत्राणियों सहित महाराजकुमार जमालि तथा देवी प्रियदर्शना प्रभु के पादप्रान्त में नमित और समर्पित खड़े हैं ।
देव-दुन्दुभियों के घोष से उत्तेजित और आतंकित जमालि ने मानो कटिबद्ध हो कर, श्री भगवान की ओर अपनी भुजाएँ पसार दी। शास्ता निस्पन्द निरुत्तर हैं। जमालि की भृकुटियाँ और पेशियाँ तन रही हैं। क्या महावीर ने उसकी अवगणना कर दी? तो · · · तो . .
हठात् प्रभु का मेघमन्द्र स्वर सुनाई पड़ा : 'अनवद्या प्रियदर्शना !' 'परम पिता ने मुझे पहचाना। नाम देकर पुकारा । मैं · · · मैं . . .' और प्रियदर्शना से बोला न गया।
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