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________________ २६८ और निष्प्राण को भोगने में कोई पौरुष नहीं लगता । यह अपना अर्जन नहीं, निरंकुश बलात्कार है। अरे बलात्कार तक नहीं, बल को भी यहाँ अवसर नहीं । अपनी यह नपुंसकता अब मुझे खलती है।' 'जी खोल कर कहो स्वामी, क्या चाहते हो ? मैं क्या कर सकती हूँ, तुम्हारा जी लगाने को ?' 'यही कि तुम दुर्लभ हो जाओ, यह सारा ऐश्वर्य मुझे अलभ्य हो जाये। ताकि मैं इसे पाने को कोई महा पुरुषार्थ करूँ । इस प्राप्ति की राह में आने वाली बाधाओं और अन्तरायों से जूझं। जीवन के प्रवाह में अन्धड़ और तूफ़ान आयें, बाधाओं के पर्वत खड़े हों सामने। ताकि तूफ़ानों पर सवार हो कर, बाधाओं और विघ्नों की इन पर्वत-साँकलों का भेदन करूं । इस सब को जय करके, अर्जित करके, इसे जी चाहा भोगूं। ऐसे ही सुख में नित्यता हो सकती है, नवीनता और ताजगी हो सकती है । वही एक पुरुषोत्तम का भोग्य हो सकता है।' 'अचानक ही सूझा तुम्हें आज यह ?' 'आकस्मिक नहीं, दर्शना । एक अर्से से मेरे भीतर हलचल थी । चीजें टूट रही थीं, मर रही थीं। फिर भी विवश था, पंगु था अपने प्रमाद में । किसी चोट के बिना वह कैसे होता ?' 'वह चोट कहीं मिली, आर्यपुत्र ?' 'द्युतिपलाश चैत्य में अर्हत् महावीर को समवसरित देखा । तो लगा कि यह विजेता है । अपनी दुर्दान्त और दीर्घ तपस्या से त्रिलोक और त्रिकाल की सारी सत्ताओं को इसने जीता है। और सर्वकाल के सारे सुखैश्वर्य इसके चरणों में आ पड़े हैं । वह इन्हें दृष्टि मात्र से भोगता है, और ये नित नवीन ताज़ा हो कर, उसे समर्पित होते चले जाते हैं । और मुझे स्पष्ट लगा, कि एक जुझारू और जेता ही नित नव्य का भोक्ता हो सकता है।' प्रियदर्शना आनन्द से उमग कर खिलखिला पड़ी । बोली : 'तुम तो प्रभु-राजा का सदा ही उपहास करते रहे । महल में रह कर वे विरागी रहे, तो तुम उन्हें दुर्भागी, पुण्यहीन कहते थे। उनके स्वयं-वरित तपस् के कष्टों, क्लेशों, मारक उपसर्गों के उदन्त सुन, तुम अट्टहास करके कहते रहे-कितना जड़ और मूढ़ है यह महावीर, प्राप्त को ठुकरा कर अप्राप्त के चक्कर में वीरानों की खाक छान रहा है। तुम उन्हें पागल, सत्यानाशी, पलातक, वंशविनाशक, नपुंसक तक कहते रहे । और आज?' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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