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कर उठा था । उनके तपस्याकाल के भीषण उपसर्गों के उदन्त सुन कर वह उन्हें 'सत्यानाशी' कह कर उनका मजाक उड़ाया करता था।
और अब आज ?
क्षत्रिय कुण्डपुर के सीमान्तों पर देवलोकों के वैभव उतरते देख कर जमालि बौखला गया था । द्युतिपलाश चैत्य में बिराजित महावीर के समवसरण में वह किनारों से झाँक आया था। ' . . . ओ, ऐसी भी कोई प्रभुता हो सकती है ?'
और उसके समक्ष उसे अपनी तमाम सत्ता, सम्पदा और लिच्छवियों की वैशाली मुझये फूलों-सी निर्माल्य लगी थी।
उस सन्ध्या के पीताभ आलोक में, जमालि अपने अलिन्द में अकेला बैठा, मर्कत के चषक में मदिरापान कर रहा था। तभी अचानक प्रियदर्शना वहाँ आयी। जमालि की उस मातुल अवस्था को देख उसे आघात लगा । बोली :
_ 'यह क्या हो गया है तुम्हें ? तीन दिन से अविराम पी रहे हो । मुझ से भी वारुणी अधिक प्रिय हो गई ?'
जमालि चुपचाप पीता रहा । एकटक प्रियदर्शना को देखता रहा । फिर जैसे बुदबुदाया :
'तुम हो कि वारुणी हो कि वैशाली हो, क्या फ़र्क पड़ता है । मैं हार गया, दर्शा !'
'किससे . . . ?' जमालि से उत्तर न आया। वह टुकुर-टुकुर निर्लक्ष्य में कुछ खोजता रहा। 'किससे हार गये तुम ? तुमने तो अपने को सदा हर सत्ता से ऊपर माना !' 'अपने ही से हार गया, दर्शना !' 'मैं समझी नहीं। इतना उदास तो तुम्हें पहले कभी न देखा ।'
'इन रोज-रोज़ के एक जैसे भोग-विलासों से मैं ऊब गया हैं। इनको दुहराते-दुहराते सारी उम्र बीत गयी। अब ये नीरस और बासी लगते हैं । वितृष्णा होती है। जी नहीं लगता अब यहाँ।'
'इतने बड़े भूखण्ड के स्वामी हो । सारे ऐहिक सुख तुम्हारे अधीन हैं । मनमाना इन्हें भोगने को स्वतंत्र हो । फिर ऊब कैसी ?'
'ऐसा भी क्या सुख, जिसमें कोई अन्तराय नहीं, कोई संघर्ष नहीं। चीज़ों के साथ कोई टकराव नहीं, सब पालित पशु की तरह मुझे समर्पित है। इस मृत
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