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और आश्रित नहीं। जहाँ हर सत्ता अपनी राजा है, अपनी स्वामी है। जहाँ अपने विनाश और उत्थान हम स्वयं हैं। अन्य कोई नहीं।' _ 'तो महावीर तीर्थंकर और परित्राता किस लिये ?'
‘स्वयं आहुत हो कर, प्रकाश की लकीर हो जाने के लिये । ताकि सब अपने को पहचानें, सर्व को पहचानें । अर्हत् कुछ करते नहीं, स्वयंप्रकाश हो कर सर्वत्र विचरते हैं। और सब कुछ स्वयंप्रकाश होता चला जाता है। दिशाओं पर पन्थ खुलते हैं। कण-कण में आपोआप अतिक्रान्ति होती चलती है। चीजें अपने आप बदलती दिखायी पड़ती हैं।' - एक गहरी ख़ामोशी व्याप गयो । और उसमें कहीं अतल में कुछ टूटने कासा नीरव अहसास होता है । और गन्धकुटी के चूड़ान्त पर से सुनाई पड़ता है :
'यह महासत्ता का विस्फोट है, राजेश्वर ! इसे झेलो और जानो कि तुम कौन हो? और होओ वह, जो होना चाहते हो। जो हुए बिना रह नहीं सकते। ऐसा मैं जानता हूँ, ऐसा मैं देखता हूँ, ऐसा मैं कहता हूँ।'
महाराज सिद्धार्थ को कुछ ऐसा अनुभव हुआ कि अपनी ही चिता-भस्म में से वे फिर उठ रहे हैं, वैशाली फिर उठ रही है । सब उठ रहे हैं। एक नये ही आलोक के अन्तरिक्ष में।
शंखनाद और दुंदुभिघोष अनहद के पटलों को हिला रहे हैं।
और श्री भगवान हठात् गन्धकुटी की दक्षिणी सीढ़ियाँ उतरते दिखाई पड़े। उर्वशियों के उरोज उनके पगधारण को कमल बन कर बिछ रहे हैं।
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