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'यही सम्यक् स्थिति है, त्रिशला वैदेही । कुछ न करो, बस रहो, होओ । अर्हत् के अनन्त वीर्य के प्रति खुली रहो । और तुम्हारी मनचीती रचना आपोआप होती जायेगी।'
एक पूरम्पूर मौन के गहन में सब डूब गया। अचानक अपने भीतर के परपार में से आविष्ट-सी बोलीं त्रिशला देवी : ___'मेरे गोपन के अन्तरिक्ष में यह कौन पारावार उमड़ा आ रहा है ? यह कसा उभार है ? यह कैसा सम्भार है ? कटि के सीमान्त टूट गये हैं । मैं केवल हो रही हूँ वह, और अपने को होते देख रही हूँ। मैं नहीं हूँ, और केवल मैं ही तो हूँ। यह क्या · कि मैं स्वयम् अपनी योनि को भेद गयी हूँ। अयोनिजा, अयोनिज की जनेता । नहीं वह भी नहीं · । लिंगातीत, सम्बन्धातीत केवल मैं, और यह सब, स्वयम् आप । स्वभाव । केवल।'
और महारानी भीतर के अगम में विश्रब्ध हो गईं। श्री भगवान के ओष्ठकमल पर एक मुस्कान-रेखा खिल उठी । महाराज सिद्धार्थ बिना कुछ पूछे ही अनायास जैसे प्रत्यायित हो गये हैं । वे आश्वस्त स्वर में बोले :
'वैशाली का सूर्य लोक-शीर्ष पर उद्भासित है। तो वैशाली को कौन नष्ट कर सकता है ?'
'यह ममत्व भी क्यों, राजन् ? इस सूर्य का प्रताप वैशाली को भस्म भी तो कर सकता है। एक ही वैशाली अजेय है, महाराज । वह जो आपके भीतर है, मेरे भीतर है। उसकी बुनियाद ध्रुव की चट्टान में पड़ी है, उसका परकोट-भंग कौन कर सकता है ? इस वैशाली के परकोट बल्लमों और भालों के भरोसे खड़े हैं। तो कोई दूसरा बल्लम इसका बुर्ज-भंग कर ही सकता है। ढल चुका वह फ़ौलाद। और वैशाली पर मँडला रहा है । सावधान, लिच्छवि !' ___ और समवसरण में उपस्थित हज़ारों लिच्छवियों के हाथों की तलवारें छट गयीं। उनकी क्रोध से तनी भृकुटियां ढीली पड़ गयीं । और घायल सिंह की तरह अन्तिम बार जैसे गरज उठे महाराज सिद्धार्थ :
'तीर्थंकर महावीर क्या इसी लिये लिच्छवि कुल में जन्मे हैं ? अपने ही वंश का विनाश कर देने के लिये ?' ___ 'अर्हत वंशोच्छेद करने ही आते हैं, राजन् । मिथ्यात्व की परम्परा का भंजन कर के ही, अर्हत्ता प्रकट होती है। हम जोड़ने नहीं, तोड़ने आये हैं। हम बचने और बचाने नहीं, स्वाह हो जाने आये हैं। ताकि लोक में वस्तु और व्यक्ति मात्र स्वतंत्र हो जाये। अधिकार और परिग्रह के ताले टूटें। ताकि महासत्ता का मुक्त और नित्य-सत्य राज्य पृथ्वी पर प्रकट हो । जहाँ शासक और शासित नहीं। स्वामी
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