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वही स्वरूप है । उसको सम्यक् देखना, सम्यक् जानना, सम्यक् जीना ही, वह हो जाना है । वह जो नित्य बुद्ध, सत्य और सुन्दर है । जो अविनाशी है ।
'सम्यक् श्रद्धा है कि तुम हो, और यह सब भी है। तुम भी बीतते हो, यह भी बीतता है । एक पर्याय जाती है, दूसरी आती है । अवस्थाएँ बदलती जाती हैं । पर जो आत्म इस सब का साक्ष्य दे रहा है, वह तो अपने में ध्रुव और अचल है । तुम जो आदिकाल से आज तक के लोक की साक्षी दे रही हो, अपनी योनि से, अपने गर्भ से । तुम कौन हो ? तुम हो कि नहीं, अनेक जन्मों और मृत्युओं के होते भी ? '
'हूँ, इसी से तो उत्तर माँग रही हूं, भन्ते प्रभु! मैं सृष्टि की माँ हूँ, और सृष्टि मृत्यु का अवसाद और विषाद सह नहीं सकती । अवसान, अवसान, सब कुछ निदान अवसान पा रहा है !'
'उत्थान भी तो कर रहा है । और कोई एक साथ अवसान और उत्थान को देख रहा है । और वह दोनों से ऊपर है कहीं । उस द्रष्टा को नहीं देखोगी, देवानुप्रिये ?'
'उस द्रष्टा के होते भी तो सृष्टि मरणधर्मा है ही, भगवान् !'
'दृष्टि सम्यक् हो जाये, तो सारी सृष्टि सम्यक् और सम्वादी दीखने लगती है । उसमें मृत्यु कहीं दीखती नहीं । सृष्टि अपने मूल और समग्र में, अमर और सम्वादी ही है । हमारा ज्ञान दर्शन मोह से आच्छन्न है, कि मृत्यु दिखती है, अनुभव में आती है । जब आत्म इस मोह से मुक्त हो जाता है, तो मृत्यु रह जाती है मात्र एक द्वार और भी महत्तर और वृहत्तर के राज्य में प्रवेश करने के लिये ।'
'तो क्या सारा जगत कभी, ऐसे पूर्ण ज्ञान में जियेगा ? वह मृत्यु की पीड़ा से उबर सकेगा ? '
'विश्व अनन्त है, सत्ता अनन्त है, वस्तु अनन्त है । सो सम्भावना भी अनन्त है । क्या वर्द्धमान की जनेता केवल क्षणिक पर्याय को ही देखेगी, उसी में जियेगी ? अपने शाश्वत ध्रुव द्रव्य में स्थित नहीं होगी ? वह हो जाये, तो प्रश्न उठेगा ही नहीं । सब स्वत: समझ में आ जायेगा । सत् का साक्षात्कार करो, और जानो यथार्थ क्या है । तब मृत्यु का तमस क्षण मात्र में विलय हो जायेगा । एक अचूक नैरन्तर्य में जीने लगोगी, देवानुप्रिये ।'
'माँ के वश का कुछ नहीं । वह केवल सूर्य को जनना जानती है । सूर्य देखे कि उसकी जनेता कहाँ छूटी है । मैं तो सृष्टि हूँ, जो चाहो मेरा करो । मैं कुछ न करूँगी, कर नहीं सकती ।'
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