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और अर्हन्त शब्दायमान हुए : 'यह मोहराज्य का सीमान्त है, गौतम । इसे टूटना होगा।' एक वेधक सन्नाटा, अपने ही को चीरता रहा । गौतम ने उसे तोड़ा : 'प्रभु फिर चुप हो गये। तो यह कैसे टूटे ?' 'जन्मान्तरों की शृंखला है यह, गौतम । वज्र से ही वज्र का भेदन सम्भव है।' अनुकम्पित और कातर स्वर में बोल उठीं त्रिशला देवी : "इस संसार की साँकल को आज तक कौन-सा वज्र तोड़ सका है, भगवन् ?' 'जिनेश्वरों ने उसे सदा तोड़ा है, कल्याणी। अर्हत् जिनेन्द्र यहाँ उपस्थित
'लोक को सत् और नित्य कह कर भी उसके विनाश को उद्यत हैं, अर्हन्त ?'
'अर्हत् लोकहारी नहीं, संसारहारी हैं । लोक शाश्वत है, सत्ता शाश्वत है, जीवन शाश्वत है। किन्तु संसार अशाश्वत है । वह मरण और विनाश के बीच चल रहा है। वह सद्भाव नहीं, अभाव है, विभाव है। वह जीवन नहीं, बन्धन है। वह जीवनाभास मात्र है। मोह टूटे तो मरण पराजित हो जाये, जीवन की धारा अखंड हो जाये । · शास्ता जीवन-जगत को नकारने नहीं आये, उसे परिपूर्ण करने आये हैं । उसे अपने स्वभाव में स्थित कर, सत्य, नित्य, सुन्दर कर देने आये
त्रिशला देवी के स्वर में तीव्रता आ गयी :
'शास्ता तो एक दिन सिद्धाचल में निर्वाण पा जायेंगे । और हमारा यह जगत वैसा ही मोह और मरण में रुलने को छूट जायेगा । अनन्त काल में कोड़ा-कोड़ी अर्हन्त आये, और अन्ततः सिद्ध हो कर मोक्ष महल में लुप्त हो गये । उन्होंने फिर लौट कर नहीं देखा, कि हम यहाँ कैसे जीते हैं ?' ___ 'देख तो वे अनुक्षण रहे हैं, इस लोक और इसके हर परिणमन को। पर वे इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकते । वह स्वभाव नहीं । उनका अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य, अनन्त सुख विद्यमान है, कि मनुष्य की यात्रा मरण के बीच भी ऊर्ध्व और अमृत की ओर है । प्रकाश और सौन्दर्य की ओर है । मनुष्य के ज्ञान-विज्ञान, विद्या, कला, सर्जन, सारे पराक्रम, उसके प्रमाण हैं।'
"फिर भी मृत्यु अपनी जगह पर अटल है, प्रभु । मनुष्य के सारे सौन्दर्यों, सर्जनों, निर्माणों को एक दिन काल के गाल में समा जाना होता है।'
__ 'मृत्यु को ही देखोगी, त्रिशला ? उस पर हर क्षण विजयी होते जीवन को नहीं देखोगी ? वही आत्म है, वही सत्ता है, वही स्वभाव है,
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