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'तथास्तु मातेश्वरी । सिद्धार्थ तुम्हारा अनुसरण करेगा ।'
जिस काल, जिस क्षण, महारानी त्रिशला देवी और महाराज सिद्धार्थ श्रीमण्डप में प्रवेश कर, प्रभु के समक्ष साष्टांग प्रणिपात में नत हो गये, तो सारा समवसरण पुकार उठा :
त्रिशला नन्दन भगवान महावीर जयवन्त हो ।
सिद्धार्थ नन्दन तीर्थंकर महावीर जयवन्त हों। बड़ी देर तक जयध्वनि की पुनरावृत्ति होती रही । समस्त जड़-जंगम पसीज गये । त्रैलोक्येश्वर के रक्त कमलासन की पंखुरियाँ तक रोमांचित हो गई। लेकिन उन पर अधर बिराजित पुरुष के शरीर का एक परमाणु तक कम्पित न हुआ । उसका स्वाभाविक परिणमन भी इस क्षण जैसे थम गया है। हजारों
आँखों ने देखा, कि मानो एक निश्चल ज्वाला अन्तरिक्ष में त्रिकोणाकार अवस्थित है। · · · वह किसकी आहुति मांग रही है ?
राजपिता और राजमाता को उसके समक्ष देह में रहना जैसे असह्य हो गया । उस अधरासीन मातरिश्वन ने मानो उनके शरीर की पृथ्वी का अपहरण कर लिया है । अन्तर-मुहूर्त मात्र में वह अतिमानुष दृष्य अन्तर्धान हो गया।
माँ की आँखों ने स्पष्ट देखा, कि वहाँ एक पारदर्श शिशु दोनों हाथ उठा कर ऊर्ध्व में क्रीड़ा कर रहा है। जो उनके आँचल में आ कर भी, आकाश के पार खड़ा है । जो सिद्धालय की अर्द्धचन्द्रा शिला पर लेटा है, फिर भी उनकी साँस को सहला रहा है।
भुवनेश्वरी माँ उच्छवसित हो आईं । बहुत ही अस्फुट स्वर में कह सकी :
'सच ही सहस्र पहलू हीरा ले कर लौट आये हो। कितना वज्र, फिर भी कितना तरल । इसके बाहर तो कोई लोक नहीं, कोई काल नहीं। कोई वस्तु नहीं, कोई व्यक्ति नहीं। कोई तन, मन, चेतन, अवस्था, पर्याय, सम्वेदना, एषणा इससे बाहर नहीं। · · ब्रह्माण्ड को ला कर मेरी गोद में डाल दिया। फिर भी तो... ?'
ये शब्द केवल प्रभु तक सम्प्रेषित हुए। श्रोतामण्डल में अटूट मौन छाया है। और एक सम्बोधि में प्राणि मात्र आश्वस्त हैं । फिर भी वे प्रश्नायित हैं । उत्तरापेक्षी हैं।
हठात् भगवद्पाद गौतम ने अनुरोध किया :
'यह दीर्घ मौन तो अपवाद है, भगवन् । सिद्धार्थराज और त्रिशला देवी पर्युत्सुक हैं । इतने कठोर तो प्रभु कभी न हुए।'
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