________________
२५९
और महादेवी फिर वातायन पर आईं। सारा राज-प्रांगण और सम्पूर्ण नगर उत्सव के तुमुल कोलाहल से भर उठा है । क्षत्रिय कुण्डपुर के परकोटों, कंगूरों, महलों के छज्जों पर अप्सराएँ नाच रही हैं । दिव्य वाजिंत्रों की ध्वनियों से दिगन्त पुलकित हो उठे हैं ।
अचानक महाराज का स्वर सुनाई पड़ा : _ 'तुम्हारा बेटा लोकालोक का राजराजेश्वर हो कर आया है। उससे मिलने नहीं चलोगी, त्रिशला ?'
क्षण भर त्रिशला बोल न सकी। फिर कम्पित स्वर में बोली :
'वीतराग महावीर किसी का बेटा नहीं । और उसके कोई माता-पिता नहीं। मिल तो वह सकल से रहा है। उस मिलन पर हमारा कोई विशेष अधिकार तो नहीं ! अर्हन्त का दर्शन-वन्दन ही हो सकता है । · · तो आर्यपुत्र का अनुसरण करूँगी ही।'
'क्या सोचती हो त्रिशला, महावीर के होते लिच्छवियों की वैशाली · · ।'
'वैशाली लिच्छवियों की हो, या और किसी की, महावीर का उससे क्या सरोकार? वह तीर्थंकर हो कर सर्वप्रथम मगध की भूमि पर चला। वहीं के विपुल शैल पर उसका प्रथम समवसरण हुआ।· · ·और इसीलिये तो तुम उदास हो गये थे। अपने अर्हन्त बेटे को देखने तक से मुकर गये थे। · · · लेकिन उसके लिये क्या मगध और क्या वैशाली । सब समझ कर भी किस मोह में पड़े हो ?'
'सच ही त्रिशला, सिद्धार्थ का राजवंश शेष हो गया। क्षत्रिय-कुण्डपुर का सिंहासन सूना है। उसका कोई उत्तराधिकारी नहीं। फिर भी लिच्छवियों की वैशाली के मोह में पड़ा हूँ !'
'तुम्हारा राजवंश अशेष हो गया ! तुम्हारा उत्तराधिकारी त्रिलोकी सत्ता का सम्राट है। उसका सिंहासन तो ब्रह्माण्ड पर बिछा है । कुण्डपुर की राजगद्दी समस्त लोक की हो गई । और वैशाली के संथागार में त्रिलोक-सूर्य का शासन उतरा है। और तुम इतने कातर हो गये, मेरे स्वामी ? इतनी बड़ी महिमा पा कर भी मोह से उबर न सके ?'
'सच ही तुम अर्हन्त की माँ हो, त्रिशला । मैं उसका पिता न हो सका-अब तक ? आश्चर्य !'
‘ऐसा कह कर अपने तेजांशी बेटे को अपमानित न करो, देवता। चलो, प्रभुबेटे की वन्दना को चलें । अपना उत्तर उसी से पाओ । मैं कौन होती हूँ, वह देने वाली !'
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org