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· · इस क्षण पता चला, कि मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में ही अब तक जीती रही हूँ। वर्ना तो जीने को तुम छोड़ ही क्या गये थे ? सो सदा तुम्हारे साथ ही तो भागी फिर रही थी, अपनी चेतना में । कोई अलग जीना तो अपना रहा नहीं था।
'फिर भी तो, यह शरीर इस महल में छूटा पड़ा था । और आर्यपुत्र महाराज को अकेले छोड़ कर जा भी कैसे सकती थी।· · तो प्रतीक्षा की टकटकी राजद्वार पर न भी लगी हो, पर अपने समाहित एकान्त में तो द्वार खोले, दिया उजाले बैठी ही थी।
'उठ कर आयी हूँ, और देख रही हूँ । राजद्वार, जो पन्द्रह वर्ष पहले सूना हो गया था, वह हर्षित है, प्रत्याशित है । वहाँ एक उपस्थिति आकार लेती-सी लग रही है। और उसके शीर्ष पर के नौबतखाने नक्काड़ों और शहनाइयों से गूंज रहे हैं। ये किसकी पहुनाई में बाजे बज रहे हैं ? ___और अपने वातायन से सारे क्षत्रिय-कुण्डपुर पर मेरी निगाह दौड़ गई।. . . देख रही हूँ, हमारे सिंहतोरण से ले कर नगर-द्वार तक के सारे पण्य और मार्ग फूलों के द्वारों, बन्दनवारों से भर उठे हैं।
'क्या मैं सपना देख रही हूँ ? या तुम सचमुच · · · अभी अभी दिखाई पड़ जाओगे?' हठात् प्रतिहारी ने आ कर महादेवी पर फूल बरसाते हुए सूचना दी :
'महारानी माँ, आनन्द का सम्वाद सुनें । हमारे प्रभु-राजा वर्द्धमान कुमार तीर्थकर हो कर क्षत्रिय-कुण्डपुर पधारे हैं । द्युतिपलाश चैत्य में अर्हन्त महावीर का समवसरण बिराजमान है । महारानी मां जयवन्त हों । हमारे प्रभु-राजा जयवन्त हों !'
त्रिशलादेवी निस्पन्द हो रहीं। निनिमेष शून्य को निहारती रहीं । उनके पलक झपक न सके । फिर प्रतिहारी की ओर आत्मीय भाव से देखती हुई मुस्करा आई। बरौनियों में पानी की आरती-सी उजल उठी। - प्रतिहारी महादेवी को नमन कर, धीरे-धीरे चली गई। · · · और त्रिशला को नहीं सूझा कि वह क्या करे ? पैर उठता नहीं है। नहीं, उन्हें कहीं जाना नहीं है । बस, अपने में संवरित रहना है। उनकी आँखें मुंद गई। गालों पर ढलके आँसू थमे रह गये । वे नहीं रह गईं। और जो अवकाश छूटा, वह भर उठा है । सारा आसपास कितना ऊष्म और घनीभूत हो गया है। 'तुम्ही आ गये मेरे पास? मुझे न आना पड़ा। . . पर तुम्हारे त्रिलोक चक्रवर्ती ऐश्वर्य को देखने आऊँगी
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