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प्रभु को कर्ण-वेध का उपसर्ग होने के बाद माँ त्रिशला देवी समूची अपने भीतर सिमट गयीं थीं । इतना आत्म-समाहित हो गया था उनका जीवन, कि उनके कहीं होने तक का पता नहीं चलता था । पर यह विरक्ति नहीं थी, जगत और जीवन की अवज्ञा नहीं थी । वे जैसे सदा अपने अर्हन्त बेटे के साथ तन्मय रहती थीं । निरन्तर मानो उसके पीछे चलती थीं । उसकी सारी गतिविधियों को देखती थीं । उसकी वाणी को हर पल सुनती और अपने रक्त में झेलती थीं ।
महासत्ता का विस्फोट
• और उसकी हर पगचाप, और क्रिया-कलाप में अनजाने ही अपने प्रश्न का उत्तर खोजती थीं :
'क्या यह जगत और जीवन यहाँ अपने आप में ही अन्तिम रूप से कृतार्थ होने को नहीं है ? क्या यह अन्ततः हेय और त्याज्य ही है ? तो फिर एक माँ इस सृष्टि के प्रसव की पीड़ा क्यों सहे ? क्यों वह अपनी छाती अपनी सन्तान की राह के शूलों से छिदवाये ? केवल मृत्यु में खो जाने के लिये ? या निर्वाण में अदृश्य और शून्य हो जाने के लिये ?
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दूर सन्निवेश के सीमान्त से जयकारें सुनाई पड़ रही हैं । और क्षितिज पर ये रत्नों से झलमलाते किसके अन्तरिक्ष यान आवागमन कर रहे हैं ? देवविमान ? क्या फिर स्वर्ग क्षत्रिय-कुण्ड पर उतर रहे हैं ?
'गृह त्याग की पूर्व सन्ध्या में तुमने कहा था मान :
'मैं मुक्ति ले कर फिर घर लौट आऊँगा ।" " क्या सच ही तुम लौट आये, मेरे मान ? और क्या वह सहस्र पहलू हीरा लाये हो, जिस में तीनों काल और तीनों लोक निरन्तर झलकते रहते हैं ?
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