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आर्य ऋषभदत्त ने कृतज्ञ स्वर में निवेदन किया : 'हमारा ब्राह्मणत्व कृतकाम हुआ, नाथ । हमें भर्ग प्रजापति ने अब्रह्म और अविद्या के अन्धकार से उबार लिया । हमारी सारी ब्राह्मणपुरी श्रीचरणों की अनुगामिनी है।'
'तथास्तु, जातवेद अंगिरस के वंशजो ! लोक के यज्ञकुण्ड पुकार रहे हैं । वे दिगम्बर और दिगम्बरी की आहुति माँग रहे हैं। देवानन्दा और ऋषभ ही अर्हत् के इस महायज्ञ के पुरोधा होंगे । वर्ना यह यज्ञ सम्पन्न नहीं हो सकता !'
देवानन्दा के भरे गले से अनायास उच्छवसित-सा हुआ :
'सचमुच, आ गये मेरे यज्ञ-पुरुष ? मुझे कृतार्थ करने को स्वयम् ही मेरे द्वार पर आये । प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य है। हम अस्तित्वमान हुए, भन्ते नाथ !' 'आर्य गौतम, देवा और ऋषभ को भागवती दीक्षा से अभिषिक्त करो।'
· · श्री भगवान के आदेश का तत्काल पालन हुआ। देवानन्दा ने भगवती चन्दनबाला के निकट जिनेश्वरी प्रव्रज्या स्वीकार की। ऋषभ ने आर्य गौतम के हाथों आर्हती दीक्षा का वरण किया।
'आर्या देवानन्दा, जानता हूँ, तुम चराचर की माँ हो । तम्हारी वेदना से शास्ता अपरिचित नहीं । जो चाहोगी, पूरा होगा।'
और दीक्षा ग्रहण कर देवा और ऋषभ यथास्थान उपविष्ट हुए । और सारे उपस्थित ब्राह्मण सन्निवेश पुकार उठे :
'महाब्राह्मण भगवान महावीर जयवन्त हों !'
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