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सुनो सावित्री और सविता, त्रिशलानन्दन अतीत की बात हो गयी है । जालन्धर वासिष्ठ देवानन्दन महावीर बोल रहा है। हिरण्या के जल उत्तोलित हैं, सप्त सिन्धु की घाटियाँ कम्पायमान हैं। शस्त्र और शास्त्र, दोनों ही पराजित हैं । वेद चुप है, वेदान्त वाक्मान है । द्वैत विसर्जित है, अद्वैत कैवल्य प्रोद्भासित है । ब्राह्मण और क्षत्रिय के वंशाभिमान व्यर्थ हो गये हैं । वंशातीत ब्रह्मपुरुष प्राकट्यमान है । फिर क्षोभ किस लिये, भेदाभेद किस लिये, अपना पराया कब तक · · · ?'
औचक ही चुप्पी व्याप गई। श्रोतामण्डल इस वाणी का गूढार्थ बुझता-सा स्तब्ध रह गया है। गन्धकुटी के पाद-प्रान्त में आये ऋषभदत्त और आर्या देवानन्दा प्रणिपात में विनत हो गये हैं। और फिर मस्तक उठा कर समुत्सुक दृष्टि से प्रभु को एकाग्र निहार रहे हैं । भगवद्पाद इन्द्रभूति गौतम उन्हें एक टक देख रहे हैं । उनकी सूक्ष्म दृष्टि ने कुछ अपवाद घटते देख लिया है । वे संशय और विस्मय में पड़े हैं। सहसा ही उन्होंने प्रभु से जिज्ञासा की :
'हे प्रभु, अर्हत् को निहारती इस जालंधरी देवानन्दा की दृष्टि देववधु की तरह निनिमेष क्यों हो गई है ? यह विरह-विधुरा माँ की तरह विकल और रोमांचित क्यों है ? इसका आँचल दूध से भीना हो गया है ! क्या कारण है, भन्ते प्रभु ?'
'देवानुप्रिय गौतम, यह ब्राह्मणी देवानन्दा अर्हत् महावीर के ब्रह्मतेज की गर्भधारिणी माता है ।'
'तो फिर महारानी त्रिशला देवी कौन हैं, भगवन् !' 'वह क्षत्राणी त्राता तीर्थंकर के क्षात्रतेज की पिण्ड-दात्री जनेता है, गौतम् ।'
आज तक जिस रहस्य को कोई नहीं जानता था, उसे प्रभु ने स्वयम् ही खोल दिया । सारा लोक इस रहस्योद्घाटन से चकित और स्तम्भित रह गया। सुन कर देवानन्दा के लिये मानो शरीर में ठहरना भर हो गया । इस कृतार्थता और आनन्द को वह कैसे छुपाये, कहाँ समाये ! उसकी आँखें विनत हो गईं । आँसू बरौनियों में थमे रह गये । मन ही मन बोली : 'तुम तो मेरे अणु-अणु की जानते हो । मेरी क्षणिक-सी वेदना भी तुम से अछूती नहीं । तुम्हारी माँ हो कर भी मैं छोटी क्यों हो गई ? मेरा हाथ झालो, मैं गिर जाऊँगी !'
और उसे ऊपर से सुनाई पड़ा : 'आर्या देवा, आर्य ऋषभ, अर्हत् को परब्राह्मी चर्या तुम दोनों का आवाहन करती है । सावित्री और सविता के अटूट युगल की तरह, अर्हत् के संग रह कर, ब्रह्मज्ञान का नवोत्थान करो।'
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