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जयवन्त हों ।' और यही तो वैध और उचित है । यज्ञ-पुरुष की माँ कीर्तिमान क्यों कर हो ? आहुति होना ही जिस ब्राह्मणी का उत्तराधिकार है, उसका यशोगान और जयकार क्यों हो ? इतिहास में राजरानी त्रिशला ही तीर्थंकर की जनेता होने का गौरव पा सकती है । ... ओ री देवा, अंगिरा और भार्गवों की अग्नि-जाया हो कर शिलापट्ट पर नाम लिखवाना चाहती है ? धिक्कार है तुझे !
'सुनो मेरे वरेण्य सविता, मुझे इस अध: पात से बचा लो। मुझे इस कांक्षा से ऊपर उठा लो । मैं तुम्हारे यज्ञ की आहुति हूँ, तुम मेरे यज्ञ की आहुति हो । मुझे यह शोभा नहीं देता कि मैं उस त्रिशला से ईर्ष्या करूँ, जिसने मेरे तेजांश को लोक-सूर्य का भव्य शरीर प्रदान किया है ।
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पर मेरे आँगन में आये हो, तो मेरी व्यथा का निवेदन सुनोगे ? तुम्हारी माँ को तुम से शिकायत है । ... पांचाल की नदी घाटियाँ आज भी अश्वमेध और नरमेध यज्ञों की चीत्कारों से संत्रस्त हैं । वितस्ता के पानी अभी भी उसकी सन्तानों के निर्दोष रक्तपात से सिसक रहे हैं । तुम्हारे होते, अब भी मेरी सृष्टि सर्वभक्षियों के लोभ, स्वार्थ और अहम् का आखेट बनी हुई है । अभी भी वेदों की मन्त्र वाणियाँ बलात् हवन होते प्राणियों की चीखों में परिणत हो रहीं हैं ?
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जानती हूँ, ग्यारह ब्राह्मण श्रेष्ठों ने तुम्हारे नव्यमान वेदोच्चार प्रतिदी और स्वीकारा है । ब्राह्मणत्व एक नवोत्थान के तट पर उद्गीर्ण हुआ है । फिर भी, मेरी घायल कोख का रक्त स्राव जारी है। मैं अब भी तुम्हारी निरुत्तरता के वीरान में विवश छटपटा रही हूँ । कब तक महावीर, कब तक ?
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'मेरी गुहार और कौन सुनेगा यहाँ ? मुझे यहाँ कौन पहचानता है ? कौन जानता है उस रात की वह गोपन बात ? कोई कभी नहीं जानेगा कि तुम तुम
मेरे
ब्राह्मण-कुण्डपुर के उपान्तवर्ती बहुशाल चैत्य - उपवन में श्री भगवान का समवसरण विराजित है । नगर और पास-पड़ोस के सारे सन्निवेशों की प्रजा प्रभु की धर्म-सभा में उपस्थित है । ओंकार ध्वनि हिरण्यवती के जलों को रोमांचित करती हुई, लोकालोक में व्याप रही है । अनायास नीरवता छा गई । अर्हन्त ऋचायमान हुए :
‘ओ अंगिरस के वंशजो गायत्री के पुत्रो, ब्राह्मणत्व लुप्त नहीं हुआ । उसका पुनराभ्युदय हो रहा है । देख सको तो देखो, महाब्राह्मण सम्मुख उपस्थित है !
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