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उसके हृदय
नहीं, वह सदेह अर्हन्त की पूजा नहीं करती । क्यों कि वह कमल में गर्भधारण कर के भी, उसे धोखा दे गया था। फिर सुनाई पड़ा :
त्रिशलानन्दन भगवान महावीर जयवन्त हों । निग्गठनातपुत्त महावीर जयवन्त हों ।
देवानन्दा पसीज कर धप्प से अपने पूजासन पर बैठ गई । उसकी आँखें मुँद कर आज से चवालीस वर्षों के पार खुल गयीं । उस स्मृति को सहना अग्निस्नान करना है । पर उससे बचत कहाँ । मन ही मन अपने से बात कर, वह उस यज्ञ की ज्वाला को सह्य बना रही है । जाने क्यों, कितना कुछ उसमें से उच्छ्वसित हो रहा है ।
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• सच ही तो है, त्रिशला के नन्दन हो ! वैशाली के इक्ष्वाकु क्षत्रिय राजपुत्र हो । ऋषभ और राम के वंशज हो । एक ब्राह्मणी के गर्भ में तुम कैसे पिण्ड धारण कर सकते थे ? वेदभ्रष्ट ब्राह्मण-वंश के रक्त-मांस को अंगीकार कर तुम नूतन उद्गीथ का गान कैसे कर सकते थे ?
'कोई अनुयोग मन में कभी न आया। तुमने उसी क्षण इतना समाहित, आत्मस्थ कर दिया था, कि अपने-पराये की बात मन में कभी उठी ही नहीं । नहीं सोचा, कि 'तुम ने मेरी गोद क्यों न भरी ? मेरे आंगन में क्यों न खेले ? . पर आज मेरे भीतर की नारी - माँ जाग कर ईर्ष्यालु क्यों हो उठी है ? सच ही तो त्रिशला के नन्दन हो । इस ब्राह्मणी को कौन पहचानता है ? -
'कोई नहीं जानता, कोई कभी नहीं जानेगा, कि उस रात के अन्तिम प्रहर में मेरी कोख की आक्रन्दभरी पुकार को तुम ठेल नहीं सके थे । अम्भोज की तरह उठ कर आकाश को त्रस्त कर दिया था मेरे चीखते गर्भ ने । और तब तुम रुक न सके थे, ओ यज्ञ पुरुष ! सुवर्ण के सिंह पर सूर्य की तरह सवार हो कर मेरे उस धधकते अम्भोज में उतर आये थे । और तुम्हारी उस आहुति से परिपूरित हो कर, वह निश्चल समाधीत और शान्त हो गया था । और फिर तुम अनायास क्षत्रिय कुण्डपुर की ओर धावमान दिखायी पड़े थे । पर उस क्षण कोई अभियोग, अनुयोग तुम्हारे प्रति मन में नहीं जागा था । मेरी पुकार का उत्तर तुमने दे दिया था। ब्राह्मणी में उतर कर ब्राह्मणत्व का नया गर्भाधान कर दिया था । मुझे और क्या चाहिये था ?
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'लेकिन उस बात को कौन जानता है ? तुम्हारे और मेरे सिवाय । लोक में और इतिहास में कभी कोई नहीं जानेगा, नहीं कहेगा 'देवानन्दन भगवान महावीर जयवन्त हों ! ' समय के अन्त तक यही सुना जायेगा : 'त्रिशलानन्दन भगवान महावीर
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