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________________ २५२ भी लक्षित नहीं, फिर भी सब कुछ निर्धारित है। आवश्यक नहीं कि समवसरण जनालय में और बस्तियों में ही हो । वह मानुष से अगम्य कान्तारों में भी हो सकता है । वनस्पतियाँ, कीट-पतंग, जंगल के सारे पशु-पंखी, आसपास के जलचर अनायास उनके समवसरण के एकाग्र श्रोता हो रहते हैं । वे प्रभु निचाट मैदानों के आर-पार पर्वतों से बोलते हैं । नदी और जलाशय सुनते हैं । समुद्र रुक कर कान लगा देते हैं । चाण्डाल, शूद्र, कम्मकारों की बस्तियों से लगा कर, महानगरों और महाराज्यों तक, श्रेष्ठियों और सम्राटों तक वे समान भाव से विचरते हैं। अवसर्पिणी के चरम तीर्थंकर महावीर, अपने काल की मूर्धा पर आरूढ़ हो कर, अपने युग-तीर्थ में धर्मचक्र का प्रवर्तन कर रहे हैं। ब्राह्मण-कुण्डपुर के परिसर में दूर से जयकारें सुनाई पड़ रही हैं : ज्ञातृपुत्र भगवान महावीर जयवन्त हो । त्रिशला-नन्दन अर्हन्त महावीर जयवन्त हों। जालन्धरी देवानन्दा ने निगाह उठा कर दूर पर देखा । हिरण्यवती के पानी थम गये हैं, और उन पर एक आभा-वलयित बालक चल रहा है । देवा का जी चाहा कि दौड़ कर उसे पकड़ ले, सुदूर अतीत के उस एक सवेरे की तरह। और · · · और • • • उसे . . । नहीं, नहीं, यह नहीं सोचा जा सकता । उसकी छाती टीस उठी । • • • नहीं इसे नहीं पकड़ा जा सकता । यह किसी का हुआ नहीं, होगा नहीं। · · · 'नहीं तो उस दिन, मेरे उफनते अकुलाते स्तन को झटक कर भाग न खड़ा होता । वैशाली के बालक राजा को उस दिन बलात् इसी हिरण्याके तट पर मैंने अपनी छाती में आत्मसात् कर लेना चाहा था। पर ...।' देवा नन्दा की आँखें भीनी हो आयीं। ___आँगन के उद्यान में संगमर्मर का एक चौकोर चबूतरा है। उस पर उज्ज्वल मर्मर की ही अर्द्धचन्द्राकार सिद्ध-शिला आकाश में उन्नीत है । पृष्ठभूमि में दूर हट कर खड़े एक नीलाभ पाषाण में निरंजन निराकार सिद्ध की पुरुषाकृति आर-पार कटी हुई है । अर्द्धचन्द्रा सिद्धशिला पर वह मानो अधर में थमीसी लगती है। उसमें से काल और अवकाश सदा बह रहा है। यही ब्राह्मणी देवानन्दा का खुला चैत्यालय है । यही उसकी यज्ञशाला है । यहीं अंगिरा और सारे देव-मण्डल बिराजित हैं । देवानन्दा ने झारी उठा कर सिद्धशिला और सिद्ध प्रतिमा का अभिषेक किया। उन पर केशर-चन्दन और कुन्द फूल बरसाये। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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