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सचमुच, आ गये मेरे यज्ञपुरुष ?
श्री भगवान अविराम विहार कर रहे हैं । निरन्तर बोल रहे हैं। उनके मौन में से भी सतत वाणी प्रवाहित हो रही है। अतिथि और अनायास वे स्वच्छन्द विचर रहे हैं । चाहे जब चाहे जहाँ चल पड़ते हैं ।
· · · समवसरण प्रतीक्षा में उदग्र ताकता रह जाता है । गन्धकुटी का कमलासन प्रत्याशा में स्तब्ध, सूना ही पड़ा रह जाता है। अबेला हो गई, उसके स्वामी आज उस पर आ कर नहीं बैठे । हठात् घोषणा होती है, श्री भगवान विहार कर गये।
समवसरण उनके पीछे भागता है। इन्द्रलोक के ऐश्वर्य उनके आसपास भाँवरें देते हैं। लेकिन वे उन सारी गतियों के स्वामी को घेर नहीं पाते, पकड़ नहीं पाते। हारे, पराजित देखते रह जाते हैं, उस गतिमान महा पीठ को। उस आकाश वाही भव्य मस्तक को।
अन्तरिक्ष में अधर और अविराम चल रहे हैं वे प्रभु । पृथ्वी बार-बार उझक कर उन चरणों को पकड़ना चाहती है, पर वे हाथ नहीं आते । जल, वायु, अग्नि, वनस्पति, सारे तत्त्वों से गुज़रते हुए वे आगे बढ़ते चले जाते हैं । पर कोई उस वात्याचक्र को रोक नहीं पाता, बाँध नहीं पाता। - रात-दिन, ऋतु-काल की कोई मर्यादा नहीं है । वर्षा की तूफ़ानी अंधियारी रात हो, कि शीतकाल का झंझानिल और हिमपात हो, अर्हन्त महावीर उसके रुकने की प्रतीक्षा नहीं करते । कण-कण उन्हें निरंतर खींच रहा है, पुकार रहा है। अलोकाकाश से लगा कर, लोकाग्र की सिद्धशिला तक उन्हें हर पल डाक दे रही है। और वे अनिर्धारित चाहे जब, चाहे जहाँ चल पड़ते हैं। समय उनका वाहक । नहीं, वे समय के वाहक हैं । काल उनके इंगित पर अपना प्रवाह बदलता है।
ग्राम, नगर, पुर, पत्तन, अरण्य, अटवी, पर्वत, नदी, मैदान, हाट-बाट, सर्वत्र वे उन्मुक्त विचर रहे हैं । प्रमत्त भी नहीं है, अप्रमत्त भी नहीं है यह अवधूत । कुछ
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