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. . · सामने बालकवत् अबोध एक दिगम्बर सूर्य खड़ा था।
'हाय स्वामी, आप, यहाँ ? हो नहीं सकता। क्यों ? किस लिये ? कौन हो तुम ? क्या चाहते हो ?'
'भिक्षार्थी हूँ, तुम्हारे द्वार पर !' 'मेरा तो सर्वस्व ले चुके, अब देने को क्या बचा मेरे पास, मेरे नाथ ?'
'बहुत कुछ बचा है । तेरे बत्तीस बेटे अभी तेरी छाती से नहीं छूटे । उन्हें मुझे दे दे, और जो चाहे माँग ले । त्रिलोक का साम्राज्य तुझे दे दूंगा !'
'मेरी सत्ता के स्वामी, उन्हें तो तुम पहले ही ले चुके । उनकी याद भी चाहो तोले लो, और बदले में ...' '
'बदले में तीन लोक का साम्राज्य कम पड़ेगा ?'
'हाँ, कम पड़ेगा । वह नहीं चाहिये । मुझे वह त्रिलोकपति स्वयं चाहिये । वह · · · वह · · · मेरा · · · मेरा · · · मेरा बेटा हो जाये ! मेरा एक मात्र बेटा।'
'तथास्तु, सुलसा । तेरा यह बेटा कलिकाल में सर्वहारियों पर सर्वहारा की प्रभुता स्थापित करेगा !'
सुलसा एक गहरे हर्षाघात से समाधि निर्गत हो गयी । दौड़ कर द्वार पर आई । वहाँ कोई नहीं था।
पूजा-गृह से उषःकालीन आरती का घण्टा-रव आ रहा था।
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