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नरकाग्नि से उबार लो, नाथ। मुझे सहन नहीं होता । चाहो तो मेरा जीवन ले लो, पर इतना कर दो ।'
'महासत्ता के न्याय-विधान में उसका विधाता भी हस्तक्षेप नहीं कर सकता । फिर मैं कौन ? यह ध्रुव की लकीर है । इसे अपने ध्रुव से देख, जान और इससे उत्तीर्ण हो, कल्याणी ।'
'ऐसे अमोघ न्याय-विधान के होते, जगत में सर्वत्र असत्य और अन्याय की ही विजय क्यों है, भगवन् ? वैशाली और मगध अपनी सत्ता और सम्पदा को अक्षुण्ण रखने के लिये और उसे सौ गुना करने के लिये वर्षों से खूनी युद्ध लड़ रहे हैं। हजारों सैनिकों को कटवा कर ये सत्ताधीश अपने सुख भोग को सुरक्षित और अक्षुण्ण रखने में मगन हैं । यह किस न्याय के अन्तर्गत ? कब तक, प्रभु ?'
'सुनो सुलसा, सुने सारा आर्यावर्त, वैशाली यदि महावीर के होते भी न जागेगी, तो वह दिन दूर नहीं कि वह अपनी ही आग में जल कर भस्म हो जायेगी । और मगध की साम्राज्य - लिप्सा यदि न अटकी, तो राजगृही का साम्राजी सिंहासन एक दिन धूलिसात् हो जायेगा । जिसने तलवार उठायी है, उसे स्वयं उससे कट जाना होगा ! '
'यह सब हो कर भी सम्राट अन्ततः सम्राट ही रहेगा, भन्ते त्रिलोकीनाथ ! स्वयं सर्वज्ञ महावीर का वचन है, कि आगामी उत्सर्पिणी काल की चौबीसी में श्रेणिक प्रथम तीर्थंकर पद्मनाभ होंगे । और वे स्वयं आपकी ही तरह लोक की मूर्धा पर बैठेंगे । तब सुलसा काल के प्रवाह में जाने कहाँ खो जायेगी । उसे कौन जानेगा ? '
उसे जानता है महावीर, और सदा जानेगा । सकल चराचर सुनें, आज की यह रथिक- पत्नी सुलसा भी आगामी उत्सर्पिणीकाल की चौबीसी में पन्द्रहवाँ तीर्थंकर होगी । वह भी एक दिन त्रिलोकपति के सिंहासन पर बिराजमान होगी । और आर्य नागरथिक उनके पट्ट गणधर होंगे, जैसे यहाँ भगवद्पाद गौतम हैं ।'
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सारा श्रोता - मण्डल सनाका खा गया । त्रिलोकी में आश्चर्य का सन्नाटा छा गया। सुलसा ने आँचल पसार कर अपने स्वामी के ओवारने ले लिये । वह • भगवती चन्दनबाला के श्वेत कमलासन तले समाधिलीन हो गयी ।
एक कालातीत शांति में जाने कितना समय बीत गया । ... सुलसा श्रीमण्डप में उतर आ कर, प्रभु के उस कोटिसूर्य मुख मण्डल की अनन्त आभा में खोयी रही। फिर अचानक धीरे से बोली :
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