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________________ २४७ 'मेरे भगवान, इतना अत्याचार न करो अपनी चरण रज पर। मुझे क्षमा न कर सके ?' 'मैं कौन वह करने वाला ? चाहो तो स्वयम् ही अपने को खमाओ, तो महावीर को भी क्षमा मिल जायेगी ।' 'तुम्हारी रीतियाँ निराली हैं, नाथ। कुछ समझ नहीं आता '' 'महावीर अपने स्वभाव में कर्तव्य कर रहा है । तुम अपने स्वभाव में कर्त्तव्यमान हो । और परिणाम देखो कि सम्राट और साम्राज्य तुम्हारे निकट पराजित हैं ।' सुलसा । 'सम्राट और श्रेष्ठि की हार कभी नहीं हो सकती, भगवन् । हार होती है सदा सारथी - पत्नी सुलसा की । आदिकाल से यही तो होता आया है । इतिहास साक्षी है ।' 'इतिहास पर अस्तित्व समाप्त नहीं, सुलसा । इतिहास का अजेय सम्राट श्रेणिक, कल उससे परे, नरक की सर्वभक्षी आग में झोंक दिया जायेगा । उसके रोम-रोम में दंश करते बिच्छू उससे पूछेंगे : 'सुलसा के बत्तीस बेटे क्यों कट गये ? तेने अपनी साम्राज्य लिप्सा में लाखों को क्यों स्वाहा कर दिया ? ·ले भोग श्रेणिक, तू जल अपनी ही सुलगाई ज्वालाओं में !' और सर्वसमर्थ श्रेणिक हार जायेगा। कोई उत्तर न दे सकेगा । उससे बस जलते ही बनेगा । 1 'और जानो, सुलसा, यह श्रेणिक इसी जन्म में अपने ही वीर्यांश के हाथों ना जायेगा | बेटे के प्रहार का भय खा कर, स्वयम् ही आत्मघात कर लेगा । यह महासत्ता का न्याय - विधान है । तुम्हें अपने पुत्रों के हत्यारों से प्रतिशोध मिल गया, सुलसा ? इसी जन्म में वह तुम्हें मिल जायेगा । देखोगी । · · .' क्षण भर चुप्पी व्याप रही, फिर भगवान बोले : “लिच्छवि महावीर और सम्राट श्रेणिक दोनों यहाँ उपस्थित हैं । अपने इन राजवंशी पुत्र घातकों से और भी जो प्रतिशोध चाहो, लो कल्याणी !' मनुष्यों के प्रकोष्ठ में बैठा श्रेणिक अपराध-बोध और पश्चात्ताप से मूर्च्छित हो धरती में गड़ा जा रहा था। प्रभु के वीतराग नयनों से चिनगारियाँ फूट रही थीं । सुलसा आर्तनाद कर रो उठी। विह्वल हो कर वह बेहिचक गन्धकुटी की सीढ़ियाँ चढ़ गयी । प्रभु के रक्त - कमलासन में सर गड़ा कर बोली : Jain Educationa International 'नहीं, नहीं, नहीं मेरे नाथ ! मुझे कोई प्रतिशोध नहीं चाहिये । एक ही प्रतिशोध चाहती हूँ, कि यह श्रेणिक पुत्र के प्रहार और आत्मघात से बच जाये । इसे For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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